प्रतीक्षित
रास्तों ने तो पलकें बिछाईं मगर,
मंजिलों की नजर में उपेक्षित हैं हम।
इसलिए आप ही अब चले आइए,
देहरी के दिये से प्रतीक्षित हैं हम।
यवनिकाएँ हटा आँख तकने लगीं।
मन के गुलदान में फूल रखने लगीं
रास्ता कौन सा आप को ला रहा,
आहटों को निगाहें परखने लगीं।
आप आएँ तो त्योहार हो जायेंगे,
उत्सवों की गली में अनिच्छित हैं हम
एक उम्मीद में रूक गई थी कभी।
झील जो लग रही वो नदी थी कभी।
मन पिघल जाए तो, फिर से बहने लगे
प्रेम की नर्मदा जो थमी थी कभी।
अनुनयों से धरा की दरारें भरें,
तब लगे बंजरों में, सुरक्षित हैं हम।
पश्चिमी छोर पर एक जलता दिया।
देखिए साँझ ने बाँह में भर लिया।
आइए अंक में अब शयन कीजिए
प्रीति ने उम्र को शून्य सा कर दिया।
योग होना है या न्यून हो जाएँगे,
जिंदगी की तरह ही अनिश्चित हैं हम।
© शिवा अवस्थी