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2 May 2022 · 1 min read

प्रणयिनी का वरण ही नहीं हो सका

गीत–

कौमुदी देख मुस्का रही थी हमें,
प्रणयिनी का वरण ही नहीं हो सका।
प्राणपण से निभाया गया प्रेम पर,
उर अनिर्णय क्षरण ही नहीं हो सका।

पुस्तिका पृष्ठ भी तो खुला रह गया,
क्यों बनी छंद वेधित कथा मानवी?।
प्रीत की रीत को भूलती जा रही ,
मौन चितवन बुलाती रही जान्हवी।
शर मदन का लगे उर नहीं हो सका,
प्रणयिनी का मरण ही नहीं हो सका।
प्राणपण से निभाया गया प्रेम पर,
उर अनिर्णय क्षरण ही नहीं हो सका।।१

बढ़ चला आज स्पंदन रुकेगा नहीं,
श्वांस के संग ये भी मिटेगा नहीं।
थाम कर बाँह लो रोकती हूँ सजन,
अभ्र संदेह का अब छँटेगा नहीं ।
आज सत्कार ‘मन’से नहीं हो सका,
प्रणयिनी का शरण ही नहीं हो सका
प्राणपण से निभाया गया प्रेम पर,
उर अनिर्णय क्षरण ही नहीं हो सका।।२

लौ लिए आस की मैं तड़पती रही ,
क्या पता था कि बदली मचलती रही ।
भग्न अंतस लिये देखती ही रही ,
मीन जैसे धरा पर तड़पती रही।
सिंधु -जल से मिलन ही नहीं हो सका,
प्रणयिनी का हरण ही नहीं हो सका।
प्राणपण से निभाया गया प्रेम पर,
उर अनिर्णय क्षरण ही नहीं हो सका।।

मनोरमा जैन पाखी
भिंड ,मध्य प्रदेश

Language: Hindi
Tag: गीत
2 Likes · 2 Comments · 106 Views
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