कोप प्रकृति का
सबेरे से मौसम ठीक ही ठाक था। ये दुपहरी को सूरज देवता को क्या ग्रहण लगा कि अंधियारा – सा हो उठा।
झोंपडी से बाहर झांका तो भैरू काका के होश उड़ गये।
फिर से बारिश।
” हे ईश्वर काहे हम दीन हीनों की परीच्छा ले रहे हैं प्रभु।” दोनों हाथों को आकाश की ओर उठा लगभग रो पड़े काका।
टूटी-फूटी झोंपडी में कुल पाँच लोग गुजर-बसर करते। इस बार तो पूरे साल बारिश ने जीना मुहाल कर दिया। दीना सेठ ने अपनी जमीन से बेदखल किया झोंपडी तोड़ कर। फिर आया भयानक चक्रवात तूफान जिसमें जैसे-तैसे जोड़ तोड़ कर बनाई गई झोंपडी उड़ गयी।
यह क्या देखते ही देखते बारिश ने विकराल रुप धर लिया।
काका ने बेटा बहू बेटी व नन्ही पोती को सुरक्षित जगह भेजना चाहा किन्तु वह खुद भी वहां न रुक पाए क्योंकि पानी में झोंपडी का दो तिहाई हिस्सा डूब गया। ये तीसरी बार बनाई झोंपडी डूबने की कगार पर थी काका भर भर आंसू रोते हुए घर का टूटा फूटा सामान ले परिवार सहित चले। जल्दबाजी में फटे पुराने तन के कपड़े सूखते ही रह गये।
सात वर्षीया पोती अपने टूटे खिलौनों के लिए रो हुई बोली – “बाबा ये बार-बार तूफान, बाढ़, भूकम्प क्यों आते जा रहे हैं। भगवान हमसे गुस्सा हैं क्या?
काका ने कहा – बेटा ये जो कुदरत है न वह भी भगवान का ही रूप है।
” कुदरत माने क्या बाबा? ”
बेटा नदियाँ, जंगल, पेड़- पौधे, पहाड़ ये कुदरत यानि प्रकृति है और आज का धनवान इंसान इनसे खिलवाड़ कर रहा है। जंगल काटकर नदियों के किनारे बस्तियां बसाकर पहाड़ तोड़ कर वह अपनी धन संपत्ति बढ़ा तो रहा है लेकिन कुदरत उससे नाराज हो रही है। ये बाढ भूकम्प तूफान से वह गुस्सा प्रकट कर रही है।
लेकिन बाबा हमने तो प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाया फिर हमारी झोंपडी क्यों बारबार टूट जाती है।
काका पोती को क्या बताते कि चोट सबसे कमजोर हिस्से पर अपना असर पहले दिखाती है वैसे काका इस बात को जानते थे कि देर-सबेर इसका बुरा असर सभी पर पड़ने वाला है चाहे कोई अमीर हो या गरीब। परन्तु वे किस किस को समझाएं?
अपनी डूबी झोंपडी देख काका की आंखें बह चलीं।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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