प्रकृति का गुलदस्ता
प्रकृति का सुंदर गुलदस्ता
धर्म के नेता बिखरा रहे हैं
देखो प्रकृति को
आपस में लड़ा रहे हैं
आज कुछ अक्षय तृतीया में
सूरज को अपना बता रहे हैं
कुछ चांद देख
ईद मना रहे हैं
दोनों ही प्रकृति को लुभा रहे हैं
धर्म के यह नेता
रंगों को भी लड़वा रहे हैं
लाल और हरा
जिसमें प्रकृति का सब कुछ है जड़ा
हरे पत्तों के बीच ही तो
गुलाब है खिला
अटूट बंधन सा ये सिला
फिर क्यों यह रंगों से
आपस में मर मिट जा रहे हैं
इस सुंदर गुलदस्ते को
क्यों बिखरा रहे हैं
अज्ञानता के कारण ही
आपस में लड़े जा रहे हैं
इस सुंदर नजारे से
सब कुछ पा रहे हैं
फिर यह धर्म के गुरु हमें
आपस में हमें क्यों लड़ा रहे हैं
हम समझ भी ना पा रहे हैं
मौलिक एवं स्वरचित
मधु शाह (३-५-२२)