प्रकृति और पुरुष
सृष्टि के आदि काल से
बने हैं
हम-तुम
यानि
मैं प्रकृति और तुम
आदिपुरुष
इक दूजे के लिए
यही सृष्टि का नियम है
तुम्हारे बिना मैं
और मेरे बिना तुम
न केवल अधूरे-अपर्याप्त हैं
अपितु
निपट निरर्थक हैं
किसने बनाया ऐसा नियम?
मैं नहीं जानती
उसे देखा भी तो
नहीं है कभी
फिर भी
इतना तो जानती हूँ
कि
आदिकाल से ही
तुम!
न केवल
नकारते आए हो
मेरे अस्तित्व को
बल्कि
अपने अहम् के दम्भ में
फंसे तुम
मुझे रौंदते-कुचलते और मिटाने के प्रयत्न में
करते आए हो वो
जो तुम्हारे
अधिकार क्षेत्र से बाहर है
वो जो धरती है
प्रकृति है
नारी है
उसे तुम नग्न करके
किसका भला कर रहे हो?
मैं!
जो प्रकृति हूँ
तुम्हारा अर्धांग हूँ
क्या केवल
तुम्हारी ईंट-पत्थर की
चहारदीवारी ही में हूँ?
नहीं!
मैं तो समूची
सृष्टि में व्याप्त हूँ
तुम मुझे निरवस्त्र करके
भला अपना अस्तित्व
कैसे बचा पाओगे?
काट लो न और वृक्ष
उड़ा दो न मेरी चट्टानें
बारूद से
क्योंकि यही पेड़
और चट्टानें ही तो
मेरे वस्त्र हैं
हाँ! हाँ…
उतार दो न द्रौपदी के चीर
और दे दो निमंत्रण
अपने विनाश को
देखते क्या हो?
सोचते क्या हो?