पृथ्वी ने देखा है
पृथ्वी ,जहां मृत्यु लोक बसता है; जहां प्रत्येक मनुष्य को मृत्यु आनी निश्चित है। शायद स्वयं ईश्वर भी इस नियम से बंधे हुए हैं, इसीलिए अजन्मा, अमर ईश्वर ने भी इस संसार में जन्म लेकर किसी न किसी रूप मे इस संसार का त्याग किया। राम ,कृष्ण, बुद्ध ,पैगंबर आदि सभी ने इस पृथ्वी पर जन्म लिया तथा किसी ना किसी रूप में संसार का त्याग किया। पृथ्वी की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत हैं। धार्मिक विचारों का अलग मत है तथा विज्ञान का अलग। हिन्दू धर्म में अठारह पुराणों में से एक ब्रह्म पुराण में भी पृथ्वी की उत्पत्ति के संबंध में मत प्रस्तुत हैं। अनादिकाल से पृथ्वी पर जीवन रहा है तथा पृथ्वी की उत्पत्ति से अब तक अनेक युग रहे हैं।पृथ्वी इन सभी युगों का प्रत्यक्ष रूप से दर्शन करती आ रही है। इन युगों में अनेक महापुरुषों तथा साधु संतो ने जन्म लिया ,जो आज हमारे लिए प्रेरणास्त्रोत हैं।पृथ्वी ने अनादिकाल से अपने वर्तमान जीवनकाल तक इन महापुरुषों के जीवन को देखा है।पृथ्वी ने एक समय श्रवण कुमार का युग देखा था जिसने अपने माता पिता के सुख के लिए अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया। श्रवण कुमार की यह मातृ पितृ भक्ति संसार आज तक विस्मृत नहीं कर सका है।पृथ्वी ने अपने जीवनकाल में उन महान ऋषि मुनियों का जीवन दर्शन किया है जिन्होंने अपने कठोर तप द्वारा इस भारतभूमि को तपोभूमि बनाया।पृथ्वी ने अपने जीवनकाल में उस मार्कण्डेय नामक बालक को भी देखा है जिसका जीवनकाल तो मात्र सोलह वर्ष थी मगर ज्ञान , भक्ति और तप ऐसा जो काल को भी भगा दे। मार्कण्डेय ऋषि ने जिस पुराण को सुनाया था वह संसार में मार्कण्डेय पुराण के नाम से प्रख्यात है। पृथ्वी ने वह युग देखा है जहा स्त्रियों का सम्मान होता था। जहा स्त्रियों को देवी का स्वरूप दिया जाता था। जहा संतान अपने माता पिता के चरणों को स्वर्ग समझकर उसे साष्टांग प्रणाम करती है। पृथ्वी ने अपने जीवनकाल में पुरुषों में उत्तम मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अतिमर्यादित, अनुशासित जीवन वा उनकी ह्रदयमोहिनी लीलाओं का दर्शन किया है।पृथ्वी ने उसकी गोद में गायों को चराते लीला पुरुषोत्तम की लीलाओं को तो देखा ही है साथ साथ कुरुक्षेत्र के मैदान में उसी लीलाधारी कृष्ण को ‘श्रीमद्भगवद्गीताा’ के रूप में संसार को महान उपदेश देते हुए भी देखा है। ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’।
पृथ्वी ने अपने जीवनकाल में विद्यार्थियों को वास्तविक ज्ञान ग्रहण करते हुए देखा है।
पृथ्वी ने अपने जीवनकाल में इन सभी का सुखद दर्शन प्राप्त किया है।
परंतु आज जब पृथ्वी उन पुत्रो को देखती होगी , जिनके नेत्रों में माता पिता के लिए आदर नहीं है,जिनके हृदय में अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का कोई भाव नहींहैं , जो अपने जन्मदाता की अवहेलना करते हैं,अपने गुरोजनो का अपमान करते है । जब कोई व्यक्ति ऋषि मुनियों की वेशभूषा धारण करके साधु संतो के संप्रदाय को कलंकित करता है। जहा स्त्रियों का सम्मान नही होता तथा आज जब कोई भी व्यक्ति शास्त्रविधि का अनुसरण नही कर रहा है। इन सभी स्थितियों को देखकर पृथ्वी के ह्रदय को कितनी पीड़ा होती होगी , कितना दुखद अनुभव होता होगा इसकी कल्पना करना नाममात्र भी संभव नहीं है।
क्या पृथ्वी अपना स्वर्णिम काल पूर्ण कर चुकी है? पृथ्वी का स्वर्णिम काल बीत चुका है अथवा पृथ्वी के स्वर्णिम दिनों की इति होना प्रारंभ हो गई है?
यदि हम चाहते है की पृथ्वी एक बार पुनः अपना स्वर्णिम काल देखे, वह पुनः एक बार दुख से सुख की ओर अग्रसित हो, तो हमे उस स्थिति को पुनः जाग्रत करना होगा जहा संतान अपने माता पिता का आदर करे,गुरुजनों का सम्मान हो, ऋषि मुनि पुनः इस संसार को मानवता का पाठ पढ़ाए तथा इस संसार को तप का अर्थ बताए,पुनः इस भूमि को तपोभूमि बनाए ,समाज में स्त्रियों का सम्मान हो, विद्यार्थी मात्र शाब्दिक ज्ञान ग्रहण न करके ज्ञान के सच्चे अर्थ को समझे तथा प्रेत्येक व्यक्ति शास्त्रविधि का अनुसरण करें।
इन सभी तत्वों का समावेश ही भारतीय संस्कृति है।अब निर्णय लेने की बात यह है की हमे पृथ्वी को सुखद अवस्था में देखना है या दुखद अवस्था में अर्थात हमे पृथ्वी को क्या दिखाना है? सच्चा ज्ञान, सदाचार , मानवता या शाब्दिक ज्ञान , दुराचार तथा पशुवृत्ति।