*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: सनातन के प्रसिद्ध देव श्री सत्यनारायण की कथा (राधेश्यामी छंद में गाने योग्य)
लेखक: पंडित राम नारायण पाठक
संपादक: हरिशंकर शर्मा
प्लॉट नंबर 213, 10 बी स्कीम गोपालपुरा बायपास निकट शांति नाथ दिगंबर जैन मंदिर, जयपुर 302018 राजस्थान
मोबाइल 94610 46594 एवं 92574 4 6828
प्रथम संस्करण: 2024
प्रकाशक: दीपक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स 322 कमला नेहरू नगर हसनपुर-सी जयपुर 302006 मोबाइल 9829 404 638
मूल्य: निशुल्क
पृष्ठ संख्या: 60
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समीक्षक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 999761 5 451
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पंडित राधेश्याम कथावाचक की राधेश्याम रामायण जग प्रसिद्ध है। तुलसीकृत रामचरितमानस के बाद अगर हिंदी में रामायण का कोई स्वरूप लोकप्रिय हुआ तो वह राधेश्याम रामायण है। जिस लहजे में राधेश्याम रामायण गाई गई, वह ‘तर्ज राधेश्याम’ बन गया। राधेश्याम रामायण के छंद ‘राधेश्यामी छंद’ कहलाने लगे।
पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अपने जैसे जिन विद्वानों को साथ लेकर वृहद साहित्यिक-आध्यात्मिक संसार रचा, पंडित राम नारायण पाठक उनमें सबसे प्रमुख रहे। राधेश्याम कथावाचक एक व्यक्ति न होकर एक स्कूल बन गए और उस स्कूल के प्रमुख अंग पंडित रामनारायण पाठक बने। राधेश्यामी छंद में पंडित राधेश्याम कथावाचक ने जहां एक ओर राधेश्याम रामायण लिखी और गाई वहीं दूसरी ओर पंडित रामनारायण पाठक ने ‘सत्यनारायण की कथा’ को राधेश्याम रामायण की तर्ज पर मधुर गेय हिंदी में लिख डाला। यह भी अपने समय में उतनी ही लोकप्रिय हुई, जितनी राधेश्याम रामायण हुआ करती थी।
पंडित राम नारायण पाठक का जन्म 10 अप्रैल 1894 को चंदौसी उत्तर प्रदेश में हुआ। आपकी मृत्यु 14 अक्टूबर 1976 को बिल्सी, बदायूं, उत्तर प्रदेश में हुई। इस प्रकार आप पंडित राधेश्याम कथावाचक जी से लगभग 4 वर्ष छोटे थे। (कथावाचक जी का जन्म 25 नवंबर 1890 को हुआ) 1923 में सत्यनारायण की कथा का प्रथम संस्करण श्री राधेश्याम पुस्तकालय, बरेली से प्रकाशित हुआ। (प्रष्ठ 6)
पंडित रामनारायण पाठक एक प्रकार से कथावाचक जी के दाहिने हाथ थे। सन 1933 के वेतन रजिस्टर के अनुसार वह ₹100 मासिक पर मैनेजर के तौर पर कार्य करते थे। (पृष्ठ 28)
जब कथावाचक जी ने 1922 में मासिक पत्रिका भ्रमर निकालना शुरू किया तो शुरुआत के कुछ ही समय बाद पंडित रामनारायण पाठक जी ने इसका संपादकीय दायित्व संभाल लिया वह भ्रमर के 1923 से 1930 तक संपादक रहे। (पृष्ठ 21)
पंडित रामनारायण पाठक की प्रमुख रचनाओं में भगवद्गीता को राधेश्याम रामायण की तर्ज पर सृजित करना एक प्रमुख कार्य रहा। इसका विज्ञापन श्री राधेश्याम पुस्तकालय, बरेली ने 1928 में प्रकाशित किया था। (प्रष्ठ 23)
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सत्यनारायण की कथा
सत्यनारायण की कथा लगभग तीन सौ छंदों में पंडित रामनारायण पाठक जी ने लिखी है। सभी छंद राधेश्याम रामायण की तर्ज पर लिखे गए हैं । ऊॅंचे स्वर में गायन इनकी विशेषता है। सरल सुबोध भाषा में अभिप्राय को पाठकों तक पहुंचा देना राधेश्यामी छंद का प्राण है। पाठक जी की संपूर्ण पुस्तक अर्थात सत्यनारायण की कथा पॉंच अध्यायों में विभक्त है। इस प्रकार समस्त कथाएं विस्तार से इन अध्यायों में वर्णित की गई हैं ।कथावाचन को आकर्षक बनाने के लिए पाठक जी ने हर पांच या छह छंदों के बाद एक दोहे-छंद का प्रयोग किया है। इससे गायन में विविधता भी आती है और दोहा छंद पर पाठक जी की पकड़ भी पता चलती है। कहीं-कहीं एक से अधिक दोहों का प्रयोग भी आपने किया है। दोहों में मात्राओं का विधिवत रूप से ध्यान रखा गया है। इससे एक कवि के रूप में पाठक जी की कला कुशलता प्रमाणित होती है।
कथा जिस ढंग से लिखी गई है, वह इतनी सरल है कि श्रोता समूह में शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो जो उसे समझने में असमर्थ हो। शब्द सीधे-सीधे चित्र खींचते हैं और कथा प्रवाह के साथ आगे बढ़ने लगती है। सत्यनारायण की कथा करते समय सबसे पहला प्रश्न यही आता है कि इस कथा को किस दिन किया जाना चाहिए ? प्रायः पूर्णमासी को लोग सत्यनारायण की कथा कहते हैं। लेकिन पंडित रामनारायण पाठक ने केवल सच्चे मन से कथा करने की बात कही है। जब चाहे व्यक्ति कथा कर सकता है। वह लिखते हैं:-
जब जी चाहे यह कार्य करें, सब तिथियां उत्तम कहलातीं/ फिर भी संक्रांति पूर्णमासी, हैं परम पुनीत गिनी जातीं/ तिथि कोई सी भी हो इससे, कुछ अधिक बनाव-बिगाड़ नहीं/ पर किया धरा सब निष्फल है, यदि मन में सच्चा भाव नहीं (पृष्ठ 34)
अब प्रश्न यह आता है कि सत्यनारायण की कथा को करने के लिए व्यक्ति को क्या करना होगा ? क्या इसके लिए कोई यम नियम आदि का पालन आवश्यक है ? पंडित रामनारायण पाठक जी हृदय की शुद्धता पर बहुत जोर देते हैं । सत्य , अहिंसा आदि के पथ पर चलना सत्यनारायण की कथा करने के लिए आवश्यक है। सत्यनारायण की कथा के पहले अध्याय में वह लिखते हैं:-
मन को वश में रखकर उस दिन, नारायण से अनुराग करें/ हिंसा असत्य मद मोह लोभ, और काम क्रोध का त्याग करें (पृष्ठ 34)
सत्यनारायण की कथा में पाठक जी ने स्थान-स्थान पर कुछ गाने भी अपनी ओर से लिखकर समाविष्ट कर दिए हैं। इससे सत्यनारायण की कथा में रोचकता और तरलता बढ़ गई है। यह गाने भी ईश्वर भक्ति की सच्ची राह पर साधकों को ले जाने वाले हैं। एक गाने में वह लिखते हैं:-
भाव के भूखे हैं भगवान/ भाव न हो सच्चा जो हिय में, तो सब व्यर्थ विधान (पृष्ठ 39)
सत्यनारायण की कथा के माध्यम से जीवन में सत्य को अंगीकृत करना ही ऋषियों को अभीष्ट रहा है। इसलिए यह उचित ही है कि पाठक जी ने सत्यनारायण की कथा में व्यक्ति को अहंकार आदि से दूर रहने की शिक्षा दी है। एक स्थान पर कथा में वह निम्नलिखित छंद के माध्यम से समता का संदेश देते हैं:-
इस जग के बड़े आदमी तो, निर्धन से घृणा दिखाते हैं/ पानी कैसा वह तो हमसे, बोलते हुए सकुचाते हैं (प्रष्ठ 37)
समता का यही संदेश सत्यनारायण की कथा के अंतिम अर्थात पांचवें अध्याय में पाठक जी ने पुनः अध्यात्म मार्ग के साधकों तक पहुंचाया है। वह लिखते हैं:-
राजा ने देखा मिलजुल कर, कुछ ग्वाले उन तक आए हैं/ श्रद्धा समेत मिष्ठान मधुर, अपने हाथों में लाए हैं/ यह देख नरेश्वर ने सोचा, यह तुच्छ वंश के ग्वाले हैं/ वन में सारे दिन चल फिर कर, गो-वत्स चराने वाले हैं/ उनके हाथों का छुआ हुआ, मिष्ष्ठान्न ग्रहण कर लें कैसे/ राजा होकर राजाओं का हम मान नष्ट कर दें कैसे (पृष्ठ 57, 58)
सत्यनारायण की कथा किसी भी व्यक्ति के जीवन में असत्य और अहंकार की विद्यमानता का समर्थन नहीं करती। सत्यनारायण की कथा का अभिप्राय तो समता पर आधारित समाज की स्थापना सत्य और निश्छल अंतर्मन से करना ही अभीष्ट है। पंडित रामनारायण पाठक जी की सत्यनारायण की कथा सरल प्रवाह में राधेश्यामी छंदों में अगर आज भी गाकर पढ़ी जाए तो अद्भुत संगीतमय वातावरण की सृष्टि कर देगी।
पुस्तक पंडित राम नारायण पाठक जी की मृत्यु के अड़तालीस वर्ष बाद हरिशंकर शर्मा जी ने गहरी आस्था और पूर्वजों को हार्दिक श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए अपने संपादन में प्रकाशित की है। इसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। केवल इतना ही नहीं, पुस्तक का मूल्य निशुल्क रखा गया है। यह आज के जमाने में आश्चर्यचकित कर देने वाली घटना है। हरिशंकर शर्मा जी को उनकी उदार प्रवृत्ति के लिए ढेरों साधुवाद।