*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : रामपुर के रत्न
लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
प्रकाशन का वर्ष :1986
समीक्षक : श्री भारत भूषण , मेरठ सुप्रसिद्ध कवि
नोट :(पुस्तक की एक प्रति लेखक के पास है तथा एक प्रति रामपुर रजा लाइब्रेरी में सुरक्षित है)
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देश की स्वतंत्रता और रामपुर
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श्री रविप्रकाश की पुस्तक ‘रामपुर के रत्न’ पढने का सुयोग मिला। पूरी पुस्तक इतने सुन्दर और आकर्षक ढंग से लिखी गई है कि शायद और नगरों के लेखकों को भी अपने-अपने नगरों के बारे में ऐसी किसी कृति के सृजन की प्रेरणा मिलेगी। रवि प्रकाश के लेखक का अभी शैशव ही है किन्तु उनको शैली पर्याप्त परिमार्जित है। रामपुर में भी पिछले लगभग तीस वर्षों से सम्बद्ध हूॅं । प्रस्तुत पुस्तक के अधिकांश व्यक्ति मेरे भी श्रद्धास्पद हैं। उन सभी को इतने वर्षों से जानते हुए भी उनके बारे में इतना कुछ नहीं जान पाया था जितना इस पुस्तक को पढ़ कर जान सका ।
रामपुर की नवाबी सत्ता का इतिहास, नगर की धार्मिक सांस्कृतिक, सामाजिक स्थितियों का लगभग पचास वर्षों का लेखा-जोखा और इनसे सम्बद्ध रहे व्यक्तियों की कार्यशैली, त्याग, तपस्या, लगन, साधना का विवरण इस पुस्तक में सुरुचिपूर्ण शैली में लिखा गया है।
देश की स्वतंत्रता के लिए रामपुर में किस-किसने क्या-क्या किया, आजादी के लिए उस सामंत युग में भी कितने व्यक्तियों में कितनी आग थी और कैसे-कैसे कष्ट उन्होंने इस देश के लिए सहे थे, ये सभी कुछ इस पुस्तक में पढ़ते-पढ़ते मन सहसा उसी समय के आकाश में पहुॅंच जाता है।
साहित्यिक संस्था ‘ज्ञान मन्दिर’ का इतिहास, साहित्य की यात्रा और उसके यात्रियों के चित्र सभी कुछ इस पुस्तक में स्तुत्य है।
शैलीगत कुछ प्रस्तुति देखें-‘अगर जैनत्व एक चोला है जिसे कोई ‘भी आडम्बरवादी पहन सकता है तो दिवाकर जैन नहीं रहे। पर जैनत्व यदि आत्म-ज्ञान का अन्तर्दीप जलने का पर्याय है, तो दिवाकर जैन न लिखने के दिन से सचमुच जैन बने ।
“यहां भी वह अड़ भिड़े और सही बात के लिए लड़े” यहाँ ‘अड़ भिड़े’ प्रयोग एकदम नया और सटीक है।
चित्रात्मकता देखें- ‘तिहत्तर साल के बुजुर्ग शांतिशरण जी आठ-दस साल के बालक की चंचल अबोध ऑंखों से तत्कालीन परिवेश को निहारने लगे । परतंत्रता के घटाटोप अंधेरे में स्वतंत्रता की एक ज्योति पर उनके स्मृति-नेत्र स्थिर हो आए ।
व्यक्ति चित्र देखें- वे गृहस्थ हैं मगर तपस्वी है। भगवा वस्त्रों से रहित एक सन्यासी हैं । वे परतंत्रता युग की कांग्रेस के सिपाही, खादी-भावना के वाहक और गॉंधी व दयानंद की स्वतंत्रता सामाजिक चेतना के प्रहरी हैं । वे निर्लोभी हैं और सेवावृत्ति से आपूरित है ।’
इस प्रकार की आकर्षक शैली और शब्द-प्रयोग पुस्तक में अनेक हैं जो लेखक के उज्ज्वल भविष्य के संकेत चिन्ह हैं। लेखक श्री रवि प्रकाश को मेरी बधाई और शुभकामनायें । मुद्रण और अधिक अच्छा हो सकता था।________________________
(श्री भारत भूषण, मेरठ की यह समीक्षा सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक, रामपुर 13 जून 1987 अंक में प्रकाशित हो चुकी है)