*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक का नाम : श्रीमद्भगवद् गीता जीवन-विज्ञान
लेखक : धर्मेंद्र मोहन सिन्हा 171-ए, आबूलेन, मेरठ कैंट
प्रकाशक : राकेश कुमार मित्तल आई.ए.एस. ,कबीर शांति मिशन, 7 /41-ए, तिलक नगर, कानपुर फोन 244 394
प्रथम संस्करण : 19 अप्रैल 1990 ,वैशाख कृष्ण नवमी, संवत 2047
मूल्य: ₹50
प्रष्ठ संख्या : 520
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समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा की असाधारण गीता-टीका
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श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा ने जब भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश प्राप्त किया, उसके बाद श्रीमद्भगवद्गीता जीवन-विज्ञान नाम से उनकी यह गीता-टीका प्रकाशित हुई । श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा उत्तर प्रदेश के रामपुर आदि अनेक जिलों में जिलाधिकारी आदि उच्च प्रशासनिक पद पर कार्यरत रहे हैं, अतः उनकी टीका सांसारिक दृष्टि से जीवन की विविधताओं का अनुभव लिए हुए है। चीजों को समझने की उनकी शैली व्यवहारिक है तथा गीता के गूढ़ रहस्यों में प्रवेश करते समय भी वह सरलता के भाव को नहीं छोड़ते । अतः सामान्य पाठक इस टीका से असाधारण रूप से लाभ उठा सकते हैं। जो लोग गीता के एक-एक श्लोक की गहराई में प्रवेश करना चाहते हैं, उनके लिए तो मानो यह रामबाण औषधि है, क्योंकि लेखक ने इस टीका में मूल संस्कृत का श्लोक लिखने के बाद उसका संक्षिप्त अर्थ भी लिखा है और उस में प्रयुक्त विभिन्न शब्दों की न केवल व्याख्या की है अपितु कुल मिलाकर इस श्लोक का जो अर्थ निकल रहा है, उस पर भी अपनी ओर से विस्तृत टिप्पणी की है।
गीता के श्लोक का जो अर्थ प्रकट होता है उसको देखने की प्रत्येक लेखक की एक अपनी शैली होती है । श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा की भी एक परिपक्व दृष्टि है । उन्होंने शास्त्रीय विवेचन भी किया है और सामान्य रूप से लोक-जीवन को लाभान्वित करने की दृष्टि से उसका अर्थ भी समझाया है ।
पुस्तक की भूमिका में लेखक श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा ने लिखा है:- “श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत महान ग्रंथ है। भगवान श्री कृष्ण ने इस उपदेश के द्वारा अपने परम भक्त अर्जुन के माध्यम से सभी मनुष्यों के लिए जो मार्गदर्शन दिया है, उसको अपना कर प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन का परम श्रेय पाने में सफल हो सकता है ।…इसके उपदेश से प्रत्येक मनुष्य लाभान्वित हो सकता है, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म इत्यादि का क्यों न हो । कोई भी दार्शनिक तत्व ऐसा नहीं है, जिसका समावेश इस अनुपम ग्रंथ में नहीं किया गया हो।”
अनेक विद्वानों ने जहॉं गीता पर अपनी टीका लिखित रूप में प्रस्तुत की है तथा वह प्रकाशित हुई हैं, वहीं दूसरी ओर विनोबा भावे जैसे विद्वान भी हुए हैं जिन्होंने गीता पर अपने प्रवचन दिए और उन पर प्रवचनों को श्रोताओं में से किसी एक ने लिपिबद्ध कर लिया और इस प्रकार वह सदा-सदा के लिए सुरक्षित हो गए । श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा के साथ भी यही हुआ। उन्होंने गीता का अर्थ समझाने के लिए लगभग 30 घंटे के कुल मिलाकर 20 कैसेट रिकॉर्ड किए थे । बाद में उनके मित्र राकेश कुमार मित्तल को यह बहुत पसंद आए और उन्होंने इसे पुस्तक का रूप प्रदान कर दिया । अन्यथा तो यह कैसेट केवल सुनने-सुनाने तक ही सीमित रह जाते ।
दैनिक जीवन में गीता का महत्व बताते हुए श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा ने एक संस्मरण पुस्तक में दिया है, जिसके अनुसार भारतीय सेना के एक कर्नल महोदय प्रतिदिन गीता पढ़ते थे । जब किसी ने आश्चर्य व्यक्त किया तो कर्नल साहब ने उन्हें जवाब दिया कि “संसार में यही एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो युद्ध-भूमि में कहा गया है । वास्तव में यह तो हर सैनिक के लिए अत्यंत आवश्यक निर्देश पुस्तिका है।” लेखक ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा “जीवन के संघर्ष में रत हर व्यक्ति के लिए यह बात अत्यंत विचारणीय है।”
पुस्तक में प्रत्येक श्लोक में प्रयुक्त विभिन्न शब्दों को विस्तृत व्याख्या के द्वारा समझाया गया है। उदाहरण के तौर पर गीता के पहले श्लोक की व्याख्या करते समय लेखक ने “धृतराष्ट्र का अर्थ” तथा “धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र” शीर्षक से व्याख्या को विस्तार प्रदान किया है ।
लेखक ने लिखा है :-
“महाभारत में राजा धृतराष्ट्र को अज्ञानी की संज्ञा दी गई है । अज्ञान से मनुष्य की चेतना अर्थात अनुभव और विचार करने की शक्ति जब थक जाती है तो वह मन को वश में करने में असमर्थ हो जाता है । इसके कारण उसकी चेतना सांसारिक धन-संपत्ति, स्त्री, लोक-प्रसिद्धि और ऐश्वर्य-वैभव की कामनाओं से ढक जाती है और उसका विवेक जाता रहता है । यही मोह है और धृतराष्ट्र मोह से अंधी हुई चेतना का प्रतीक है।” (प्रष्ठ 2)
गीता के अंतिम श्लोक में जहॉं भगवान कृष्ण और अर्जुन की उपस्थिति को सब प्रकार की सफलताओं का प्रतीक बताया गया है, इसकी व्याख्या करते हुए लेखक ने लिखा है :-
“संसार में क्षणभंगुर मनुष्य शरीर को प्राप्त करने का सबसे उत्तम फल और इसे प्राप्त करने पर इसके लिए सबसे कल्याणकारक नीति यही है कि इस गीता-शास्त्र में बताए गए सुगम उपाय को समझ कर मनुष्य अपने जीवन का सदुपयोग कर भगवान की भक्ति प्राप्त कर ले । यही उसका परम ऐश्वर्य है ,यही उसकी सारी प्रवृत्तियों पर विजय है और यही उसका परम सामर्थ्य है ।” (प्रष्ठ 520 )
पाठक महसूस करेंगे कि व्याख्या सटीक है और अर्थ को सरलता से समझाने में समर्थ भी है।
श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा के चित्त की वृत्तियॉं सात्विकता से ओतप्रोत हैं। उनके जीवन में भक्ति का उदय है । इसीलिए पुस्तक के समर्पण-पृष्ठ पर वह लिखते हैं :-
“हे प्रभु ! तुम्हारी ही इस वाणी का जीवन-विज्ञान के रूप में निरूपण तुम्हारी ही अनुप्रेरणा और कृपा से संपन्न हो सका है ।”
अंत में वह लिखते हैं :- “तुम्हारे भक्तों की चरण रज का अभिलाषी धर्मेंद्र मोहन सिन्हा”
भगवान से भी बढ़कर भगवान के भक्तों की चरण-रज की अभिलाषा भक्ति की चरम अवस्था है। इस भाव में पहुॅंचकर ही कोई व्यक्ति भक्ति-योग के मर्म तक पहुॅंच सकता है । इस भाव में ही संसार की समस्त इच्छाओं का निषेध हो पाता है । सांसारिकता से विमुख होकर गीता के अध्ययन और मनन में अपने आप को समर्पित करने के लिए तथा उस अध्ययन का लाभ समस्त समाज को प्रदान करने के लिए श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा बधाई के पात्र हैं।
मेरे लिए इस पुस्तक का इसलिए भी विशेष महत्व है कि इस पर “हिंदी के उदीयमान लेखक प्रिय रवि प्रकाश जी को सस्नेह भेंट” शब्दों की आत्मीयता के साथ श्री धर्मेंद्र मोहन सिन्हा जी के हस्ताक्षर तथा 7 जून 1990 की तिथि उनकी हस्तलिपि में अंकित है।