पुस्तक समीक्षा-प्रेम कलश
पुस्तक समीक्षा-प्रेम कलश
रचनाकार-आदरणीय रूद्र नाथ चौबे “रूद्र”
समीक्षक-राकेश चौरसिया
मो-9120639958
प्रस्तुत पुस्तक “प्रेम कलश”एक “काव्य संग्रह” नहीं,बल्कि यह प्रतिष्ठित कवि श्री रूद्र नाथ चौबे “रूद्र”जी के द्वारा लिखा गया एक “खंड काव्य ” है, जिसे राग बद्ध गाने से मधुर रसपान की अनुभूति होती है । आदरणीय रूद्र जी के इस खंड काव्य को पढ़ते समय अनायास ही महाकवि “जयशंकर प्रसाद”जी की याद आने लगती है ।
आदरणीय रूद्र जी ! आप तो सदा ही मुस्कुराते रहने के आदी हैं। आप अपनी बातों को जितनी सहजता व सरलता से कह देते हैं, वह सभी को आकर्षित कर लेता है।आपके लेखनी में “सरस्वती” विराजमान तो है ही,साथ ही साथ आपके गले में भी “सरस्वती” का निवास स्थान है, और आपकों “बजरंगबली” जी की भी विषेश कृपा प्राप्त है।
यह कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं कि आप अपनी भावनाओं और अनुभूतियों को बड़ी सहजता और सरलता से काव्यात्मक रूप प्रदान कर देते हैं । और यही एक सुकवि का विशेष लक्षण है ।
प्रस्तुत खंड काव्य “प्रेम कलश” 77 पेजों में संगृहीत है,जो आदरणीय “रूद्र”जी का अनुपम “कृति” है। “प्रेम कलश” के द्वारा कवि ने “शिव रूपी पुरुष” एवं “शिवा रूपी प्रकृति” के अगाध “प्रेम”को दर्शाया है,जो कि अपने आप में अद्भुत एवं अलौकिक है। जिसकी भूमिका आदरणीय “श्री राम तिवारी सहज” जी के द्वारा बड़े ही उत्कृष्ट तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
आदरणीय “रुद्र”जी एक मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार से आते हैं, इनका जन्म”4 फरवरी 1964 को जनपद- “आजमगढ़” के तहबरपुर स्थित ग्राम-” ददरा” में हुआ है। “प्रेम कलश” आदरणीय रूद्र जी का प्रथम संस्करण है । यह “कामायनी” प्रकाशन से प्रकाशित”खंड काव्य “है। रचनाकार पेशे से”अध्यापक”हैं।प्रस्तुत”खंड काव्य” के शीर्षक से पता चलता है कि रचनाकार जिस इच्छाशक्ति के साथ इस “खंड काव्य” की रचना की है,उसमें पूर्णतः सफलता मिली है।ऐसा कह सकते हैं कि आपने “गागर में सागर”भरने का काम किया है।
प्रस्तुत “खंड काव्य” “प्रेम कलश” पांच सर्गों में विभक्त है। प्रत्येक सर्गों की अपनी अलग-अलग विशेषताएं” हैं। श्रृंगार रस की बारिश में यह खंड काव्य इस तरह से भीग रहा होता है कि हर किसी के हृदय को प्रभावित करता है, जो कि पूरे खंड काव्य में पूरी तरह से परिलक्षित होता है।
प्रस्तुत खंड काव्य में “मनुष्य एवं प्रकृति” को क्रमशः “शिव एवं शिवा” के काल्पनिक नामों के द्वारा विशेष रूप से नामांकित किया गया है, इन्हीं को पूरे “खंड काव्य” का केंद्र बिंदु बनाया गया है।
“प्रथम सर्ग” के प्रथम छंद के अनुसार रचनाकार “प्रेम कलश” की दीवारों पर प्रेम और स्वास्तिक चिन्हों के अंकित होने की बात करता है, जिससे प्रतित होता है कि “प्रेम” के “कलश” का स्वरूप कितना प्रेममयी और आध्यात्मिक है।
प्रेम कलश की प्रेम भित्ति पर,
प्रेम चिन्ह अंकित था,
स्वास्तिक वंदनवारों से वह,
पूरी तरह अलंकृत था।१
रचनाकार ने प्रस्तुत “खंड काव्य” के इसी सर्ग में काम देव के माध्यम से घट के अन्दर स्थित “प्रेम-नीर” को अत्यंत मादक बनाने का सफल प्रयास किया है । समय पूरा हो जाने पर प्रेम के दीपक से “शिव रूपी नायक का अवरतण होता है तथा घट में स्थित “मादक जल”से “शिवा रूपी नायिका” की उत्पत्ति होती है।
प्रेम दीप की प्रेम शिखा से,
शिव प्रेमी अवतार लिया,
प्रेम कलश के मादक जल से,
शिवा रूप साकार लिया।८
इस प्रकार से कुछ समय बीतने के बाद शिव एवं शिवा (नायक-नायिका ) अर्थात”प्रकृति”एवं”पुरुष”दोनों “किशोरावस्था”में प्रवेश करते हैं,तब दोनों में साक्षात्कार होता है।
एक बार शिव और शिवा,
दोनों में साक्षात्कार हुआ,
अपलक दृष्टि बनी दोनों की,
सिहरन का संचार हुआ।१०
प्रस्तुत”खंड काव्य” के ” दूसरे सर्ग में रचनाकार ने मन के तारों को संचार माध्यम मानकर एक दूसरे को संदेश सम्प्रेषित करने का सफल प्रयास किया है। अर्थात् उनके निजी जीवन में एक दूसरे के महत्व को समझाने का भरपूर प्रयास किया गया है।
तुम हो जीवन साथी मेरे,
तुमसे यह जीवन मेरा है,
मेरे इस भोले से उर में,
तेरा सिर्फ बसेरा है।६
इसी खंड काव्य के “तृतीय सर्ग” में रचनाकार ने “बसंत ऋतु” के आगमन पर “प्रकृति” रूप निखरने के साथ-साथ शिव एवं शिवा के मनोदशा का मधुरिम चित्रण किया है। जिसमें “श्रृंगार रस” के प्रबलता के साथ “वियोग रस” का अद्भुत समावेश है।
अश्रु बूंद मिल गए एक में,
और गले का हार बने,
अश्रु बिंदु की माला मुझको,
तेरा है उपहार बने।८
तृतीय सर्ग के ही अट्ठाईसहवें छन्द को पढ़कर प्रख्यात कवि “हरिवंशराय बच्चन” की सहसा याद आने लगती है— “मधुबाला के मधुशाला से ,
निकल रहा रस मधु वाला ।
आकर के एकत्रित होता ,
भर जाता मधुका प्याला ।।” -28 रचनाकार “प्रकृति रूप शिव और प्रकृति रूपी शिवा” के मध्य बसंत ऋतु के मादक अवसर पर संयोग के उपरांत हृदय में जो तृप्तियां होती है, उन भावाभिव्यक्ति को अत्यंत सुसंस्कृत एवं परिमार्जित काव्य शिल्पण के माध्यम से प्रदर्शित करने का सफल प्रयास किया है,जो कि अत्यंत सराहनीय है।
प्रेम लाप बढ़ा आगे,
फिर अनंग अंग में व्याप्त हुआ,
प्रेम बूंद की बारिश से तब,
अंग अंग फिर शान्त हुआ।३१
प्रस्तुत खंड काव्य के “चतुर्थ सर्ग” में कवि की लेखनी विवश प्रतीत होती है, क्योंकि संयोग के बाद वियोग की स्थिति उत्पन्न होती है,अर्थात् बसंत आकर जब जाने लगता है,तो चारों तरफ की हरियाली विमुख होने लगती है।
क्या करूं नहीं बस चलता मेरा,
मैं रीति रस्म से बेबस हूं,
जाना तो मुझको होगा ही,
फिर भी तेरा सर्वस हूं।२
“अंतिम” एवं “पंचम सर्ग” में” शिव और शिवा” अर्थात ” पुरुष एवं प्रकृति ” इस तरह से मिल जाते हैं,जिस तरह से “दूध और पानी” का मिलन होता है।और दोनों उसी कलश में समाहित हो जाते हैं,जहां से उनकी उत्पत्ति हुई थी।
प्रेम कलश हो गया पूर्ण,
दोनों ही उसमें वास किए,
रूद्र देखते रहे सभी,
शिव शिवा आखिरी सांस लिए।४६
इस प्रकार से अपनी नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करता हुआ आपका यह ” खंड काव्य” “प्रेम कलश” पुरुष एवं प्रकृति” के मध्य अगाध प्रेम को दर्शाता हुआ सम्पूर्ण चराचर लिए “वरदान” साबित होगा । अर्थात मनुष्य एवं प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करने में सहायक होगा। हालांकि कुछ वर्तनी त्रुटियां हैं, जिसके लिए छपाई के यंत्र जिम्मेदार हैं जो अगले संस्करण में दूर हो सकती हैं। इसी आशा और विश्वास के साथ “प्रेम कलश” “खंड काव्य” की “समीक्षा”लिखते हुए हमें अपार सुख का आभास हो रहा है। आपका खंड काव्य “प्रेम कलश” हमेशा नई-नई ऊंचाईयां हासिल करता रहे। इसी कामना के साथ कि आपका भविष्य उज्जवल हो और मेरी तरफ से श्रेष्ठ रचनाकार परम श्रद्धेय रूद्र जी को बहुत-बहुत बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएं ।
23/01/23