पुस्तक समीक्षा : अर्चना की कुंडलिया(भाग-2)
पुस्तक समीक्षा : अर्चना की कुंडलिया
आज हम चर्चा कर रहे हैं मुरादाबाद की सुप्रतिष्ठित कवियित्री डा• अर्चना गुप्ता के कुंडलिया संग्रह ‘अर्चना की कुंडलिया’ भाग 2, की। अर्चना जी का इससे पूर्व एक गजल संग्रह ‘ये अश्क होते मोती’ भी प्रकाशित हो चुका है।
कुंडलिया विधा पर उनका संग्रह दो भागों में प्रकाशित हुआ है।
आजकल कुंडलिया छंद में गिने चुने रचनाकार ही लिखते हैं।
यद्यपि कुंडलिया छंद पर हमने अपने शिक्षण के दौरान गिरधर कवियाय की कुंडलियाँ पाठ्य पुस्तकों में पढ़ी थीं।
बाद में काका हाथरसी जी की हास्य रस की कुंडलियाँ भी खूब पसंद की जाती रहीं।
वस्तुतः कुंडलिया छंद दोहे और रोले के मिश्रण से बनता है।
पहली दो पंक्तियां दोहे के रुप में होती है, तथा अगली चार पंक्तियां रोले के रुप में होती हैं। द्वितीय पंक्ति में दोहे का अंतिम चरण, तृतीय पंक्ति में रोले का प्रथम चरण होता है।
एक कुंडल की तरह कुंडलिया जिस शब्द या शब्द युग्म से प्रारंभ होती है, उसी शब्द या शब्द युग्म पर इसका अंत होता है। प्रथम पंक्तियों में विषय का या प्रश्न का विवरण, मध्य में प्रभाव व अंत में समाधान, इस प्रकार कुंडलिया छह पंक्तियों में किसी भी परिस्थिति का पूर्ण विवरण उपलब्ध कराती है।
अर्चना जी ने अपने संग्रह में कुंडलिया छंद की इस विशेषता को भलीभांति निभाया है।
उन्होंने कुंडलियों के माध्यम से बहुत सी सामाजिक बुराइयों की ओर ध्यान खींचा है, और समाज को शिक्षित करने का प्रयास किया है।
कुंडलियों की उनकी भाषा अत्यंत सरल और ग्राह्य है, जो आम बोलचाल की भाषा है।
भ्रूण हत्या के विषय में उनकी इस कुंडलिया को विशेष रूप से उद्धृत करना चाहूँगा ः
आओ रोपें पेड़ इक, हर बेटी के नाम
फैला दें संसार में, हम मिल ये पैगाम
हम मिल ये पैगाम, बोझ इनको मत मानो
एक घृणित अपराध, भ्रूण हत्या है जानो
कहे अर्चना बात, बेटियाँ सींचें आओ
शिक्षा की दे खाद, इन्हें हम रोपें आओ।
इसी प्रकार आजकल परिवारों के विघटन और बेटों द्वारा अलग घर बसाने और वृद्ध माँ बाप को बेसहारा वृद्धाश्रम में रहने की परिस्थिति को भी इंगित किया हैः
दशरथ जैसे हों पिता , बेटे राम समान
पिता पुत्र की अब कहाँ, होती यूँ पहचान
होती यूँ पहचान, बड़ा दिल रहता गम में
क्यों रहते माँ बाप, आजकल वृद्धाश्रम में
उन्हें अर्चना देख, हमें लगता है ऐसे
ये सह रहे वियोग, यहाँ भी, दशरथ जैसे
इसी प्रकार परिवार में आपसी संबंधों में कभी कभी परिस्थिति वश होने वाले अविश्वास और शक के कारण संबंधों पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव के प्रति सचेत करते हुए लिखी ये कुंडलिया देखेंः
रिश्तों को ही जोड़ती, सदा प्रीत की डोर
मगर तोड़ देता इन्हें, मन के शक का चोर
मन के शक का चोर, न हल्के में ये लेना
लेगा सब कुछ लूट, जगह मत इसको देना
करके सोच विचार, बनाना सम्बन्धों को
रखना खूब सहेज, अर्चना सब रिश्तों को
अर्चना जी ने सभी प्रकार के विषयों को इस संग्रह में उठाया है, तथा उनको क्रमशः प्रार्थना, परिवार, पर्यावरण, जीवन, देश, व्यंग और व्यक्तित्व में विभाजित किया है।
152 कुंडलियों का उनका यह संग्रह इन सभी विषयों को सशक्त रूप से अभिव्यक्ति देता है।
सभी कुंडलियां सरल, सहज, ग्राह्य और रोचक हैं तथा कथ्य स्पष्ट है। पढ़ते समय कभी ऐसा नहीं लगा कि बहुत हुआ, शेष रचनाएं फिर कभी पढ़ लेंगे, बल्कि एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी रचना पढ़ते पढ़ते कब सब रचनाएं पढ़ ली गई ं पता ही नहीं चला।
यही उनके लेखन की विशेषता है।
इन्हीं शब्दों के साथ मैं अर्चना जी को इस सुंदर कुंडलिया संग्रह के प्रकाशन हेतु बधाई देता हूँ और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।