पुसिया की दिवाली
पुसिया अस्सी के उम्र में आज अकेली बस्ती के बाहर एक निर्माणधीन मकान में गुजर बसर कर रही थी।उसके दो बेटे राज रतन और शिव रतन थे।राज रतन सरकारी विद्यालय में हेड मास्टर के पद पर नौकरी करते थे।वहीं शिव रतन सरकारी हॉस्पिटल में डॉक्टर था।भरा पूरा परिवार था।दोनों बेटे शादी शुदा हो चुके थे।राज रतन के दो बेटे – अजय और विजय थे और एक बेटी प्रिया थी।शिवरतन की केवल एक ही बेटी कुसुम थी। बच्चे अभी कोई सात या आठ वर्ष के लगभग थे।
सावला रंग, सफ़ेद बाल और झुकी हुई कमर लिए पुसिया अकेली रहती थी। पति के गुज़रे हुए बीस वर्ष हो चुके थे।गरीबी में मेहनत मजदूरी कर के गुजारा किया ।समय ने कभी भूखे सोने को मजबूर किया।उसका जीवन कठिनाइयों से भरपूर था।पुसिया एक अनपढ़ महिला होने के बाद भी शिक्षा के महत्त्व को समझती थी।किसी भी तरह उसने अपने पति के साथ मिलकर दोनों बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाई।अन्ततः उसकी मेहनत सफल हुई।
शिक्षा के साथ-साथ पुसिया खुद नाच-गाना और गीत, भजन, दोहे का ज्ञान रखती थी।मेहनत करने से कभी न चूकती थी। वर्ष भर आने वाले त्योहारों को भी पूर्ण रूप से मानती थी।दिवाली के दिन पुसिया पूरे घर में दीपक जलाती थी।पूजा करती थी।उसके साथ पति और बच्चे भी शामिल होते थे।कच्चे घर द्वार होने पर भी सपरिवार खुश रहते थे। राज रतन और शिवरतन अपनी माँ को ‘ अम्मा ‘ कह कर पुकारते थे।पुसिया अपने बच्चों को त्यौहार का महत्व भी बताती।वह अच्छी बातें अपने बच्चों को बताती तथा कहानी के रूप में ज्ञान वर्धन भी करती रहती ।बच्चे भी परिस्थितियो को देख उसका हाथ बटाते और जो मिलता उसी में संतोष करते थे।आज उसी का प्रतिफल था कि दोनों बच्चे अच्छी नौकरी में हो गये।पुसिया उन्हीं के साथ आज शहर में बहू बेटे के बीच रह रही थी।
पुसिया को घर के सभी अम्मा कह कर पुकारते थे।उनके नाती-नातिन , अजय ,विजय तथा प्रिया भी अम्मा कह कर पुकारती थी।कुसुम अभी नन्ही-सी थी तो बोल नहीं सकती । पिता और माँ को पुकारते हुए सुनकर अजय विजय भी दादी को अम्मा पुकारने लगे।
एक दिन राज रतन विद्यालय से शाम को नौकरी से घर लौटे। घर पहुँँचते ही आवाज लगाई,” अम्मा, अम्मा”। कोई उत्तर न मिलने पर,राज रतन ने फिर से आवाज दी,”अजय विजय कहाँ हो ?” तभी विजय दौड़ कर आया और रूधे हुए स्वर में कहा,” पापा, आज अम्मा ,दादी और चाची में झगड़ा हुआ।” यह सुन उसे बहुत बुरा लगा।कहा-सुनी काफी बढ़ चुकी थी ।दिन भर की टकरार के बाद अम्मा जी के साथ रहने के लिए बहुये तैयार नही थी।दोनों भाई अब अलग बसेरा डालना चाहते थे।अम्मा जी की चिंता किसी को नहीं थी।इस उम्र में वह कहाँ जाएगी? राज रतन की एक भी न चली।अंत में वह भी मन मार कर रह गया।अम्मा ने कहा,”बेटा ! समय का परिवर्तन है,अभी भाग्य में कुछ और देखना बाकी रह गया।” राज रतन के आंँखों में आँसु छलक गये।अम्मा जी ने फिर कहा,”बेटा तुम सभी खुश रहो,मुझे बाहर का अपना मकान दे दो उसी में रह लुंँगी।” अम्मा रूधे हुए स्वर मे बोली, ” जब दिल करेगा तो आ जाया करुँगी अपने नाती-नतरो को देखने ।”
चार वर्ष से अम्मा जी अकेली उस भूखंड में रह रही थी। अपना खाना आज भी वह स्वयं बनती थी।जब कार्यों से फुर्सत होती तो घर के देहलीज पर बैठ जाती।वहांँ से गुजरने वाली पुरानी बुजुर्ग महिलाए अम्मा जी को देख बैठ जाती और चर्चाओ मे कुछ समय उनका भी गुजर जाता था।कभी टहलने निकल जाती।राज रतन भी अम्मा से मिलने प्रतिदिन जाते थे।इस प्रकार से अम्मा को राहत मिल जाती।त्योहार के अवसर पर राज रतन की पत्नी अम्मा जी को भोजन भी भेजती थी।अजय अब थोड़ा बड़ा हो चुका था।उसको जब भी मौका लगता वह दादी अम्मा से मिलने चला जाता ।अजय पहुँँचते ही,” अम्मा ,अम्मा।” अम्मा के कानों में आवाज बड़े धीमे स्वर में पड़ी।उम्र के साथ
साथ कान भी जबाब देने लगे। अम्मा देखती तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहता।बच्चों को देख वह सरा दर्द भूल जाती।बातें करती,दुलार करती,और अपनी बनाई हुई चीजो को खाने को देती।अम्मा ने अजय को अपनी आँखों की ओर
इशारा करते हुए कहा,” देख मेरी आंँख में,कुछ दिखा।”अजय कुछ देर आँखों में घूरता रहा,और फिर हँसते हुए बोला,” अम्मा मुझे तो कुछ नहीं दिखा। आपकी आंँखे इतनी सुंदर तो है।” अम्मा को सहसा बीते हुए दिन याद आ गये।अम्मा फिर से कहती,ठीक से देख बीच पुतली में सफ़ेद-सा कुछ है।” अजय देखता तो पर उसे कुछ भी समझ न आता ।जब भी अजय अम्मा जी के यहाँ जाता वो अपनी आँखों को दिखाती।यही करते हुए महीनों गुजर गये।और दिवाली का त्योहार करीब आ चुका था।अम्मा के आँखों का मोतियाबिंदु बढ़ रहा था।घर के कलह की डर से वह अपने बेटों को नही बताना चाहती थी।अम्मा जी के अक्सर इस तरह से पूछने पर अजय को याद आया ।तत्पश्चात अजय ने पापा राज रतन से बताया।किसी काम में व्यस्त होने की वजह से वह अनसुना कर गये।
राज रतन की पत्नी ने कहा,” अम्मा जी को घर बुला लो, इस बार उनके साथ दिवाली का उत्सव मनायेंगे।” यह सुन राज रतन को आश्चर्य चकित हुआ और उसने हल्के स्वर में कहा,”ठीक है ।”अब तक अम्मा को एक आँखों से दिखना भी बंद हो चुका था।दूसरी आँखों में धुधलापन-सा छा गया।राज रतन दिवाली की सुबह अम्मा को लेने पहुंँचे।वह बहुत ही प्रसन्न था।मानो अपने प्राणो को वापस लेने आया हो।”अम्मा, अम्मा”, उच्च आवाज लगते हुए ।चलो आज घर बहु ने बुलाया है।अम्मा को तो सब एक सामान लग रहा था।जीवन भर का अनुभव और संसार का भ्रम जाल मे पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त कर चुकी थी।सुख और दुःख की वेदना एक सामान हो गई।राज रतन के साथ अम्मा के घर आते ही सभी बच्चे उछलने लगे और शोर गुल करने लगे,”अम्मा आ गई,मेरी अम्मा आ गई।”
साँझ हो चुकी थी ।अम्मा एक कोने में बैठी हुई थी।इसी बीच उसने बेटे से पूछा,”शिव रतन नहीं आया।”
अम्मा को अभी धुंधला सा दिखाईं दे रहा था।राज रतन बोला,”नहीं अम्मा,वो नहीं आते है।”यह सुन अम्मा की आंँखे भर आयी।दिवाली के उत्सव में दोनों बेटे उसके साथ होते ।वहांँ बड़ी बहू ने पूजा कर के दीपक जलाया। शहर में चारों ओर रोशनी जगमगाने लगी।पटको की आवाज अम्मा के कानों में पड़ी तो वह समझ गई की दीपक ज्योति जल गई।राज रतन अम्मा के पास पहुंँचे आशिर्वाद लेने और अम्मा के निकट प्रसाद की कटोरी रखते हुए बोला,” अम्मा प्रसाद ग्रहण करो।” अम्मा ने जैसे ही हाथ से इधर उधर टटोलने लगी तो राज रतन को आश्चर्य हुआ।अम्मा के ऐसा करने पर उसे अजीब महसूस हुआ ।यह देख वह बोला,” अम्मा क्या खोज रही हो?” अम्मा अटकते हुए भारी स्वर में बोली ,”प्रसाद।”
माँ को ऐसा करते देख राज रतन को संदेह हुआ।”अम्मा !अम्मा!” ,वह बोला। अम्मा क्या तुमे आँखों से दिख नहीं दे रहा ।अम्मा रूधे स्वर में बोला,” नहीं बेटा।” यह सुनकर राज रतन के पैरों तले मानो ज़मीन खिसक गई। उससे अब प्रसाद न खाया जा रहा था।वह अम्मा से लिपट कर रोने लगा।कितने सालो बाद दिवाली अम्मा के साथ मनाने के लिए एक साथ हुए।दीपक की ज्योति तो जल गई पर अम्मा की नेत्र ज्योति चली गई।अब मोतियाबिंदु ने अम्मा की आँखों में पूर्ण रूप से फैल चुकी थी।
राज रतन एक पल भी ठहर न सका।वह माँ की पीड़ा और प्यार में खुद को रोक न सका।उसी समय वह छोटे भाई शिव रतन के यहाँ निकल पड़ा।शिव रतन डॉक्टर था ।अम्मा के इलाज के लिए उससे बेहतर कौन जान सकता था? शिव रतन शहर में कुछ दूरी पर रहता था।राज रतन को देख वह चकित रह गया।अचानक भाई को देख वह बोला,”भैया, सब कुशल तो है।” राज रतन ने भारी मन से सारी घटना बतायी। जब शिव रतन को मालूम पड़ा वह भी सारा आंतरिक कलह भूल गया।दोनों भाई एक हो गए थे।घर पहुँचते ही अम्मा जी को चित्रकूट के विख्यात नेत्र चिकित्सालय ले जाने का फैसला हुआ।दोनों बहुयें अब साथ में थी।रात्रि के 10 बजे का समय था ।दोनों निकल गए ।शिवरतन ने अम्मा को गोद में लिया और राज रतन ने अम्मा का सामान लिया।
अम्मा जी के मोतियबिन्दु का ऑपरेशन करवा कर दोनों वापस लौटे।अम्मा घर पर प्रवेश करते ही बोली,”अब मैं सब देख सकती हुंँ । उत्सुकता पूर्वक बोली,”बहू प्रसाद लाओ दिवाली का।” यह सुन बड़ी बहु प्रसाद लेने पहुंँची।अम्मा को देख छोटी बहू गले से लिपट गई और रोते हुए बोली ,”अम्मा जी माफ़ करो हमसे गलती हो गई।हमारी वजह से इतना सहना पड़ा आपको।” अम्मा माफ़ करते हुए बोली,”अँधेरा तो आता है जीवन में और प्रकाश से ही अँधेरा दूर किया जा सकता है।” मेरे दोनों पुत्रो ने मेरे नेत्रों के ज्योति को प्रकाशित किया।बड़ी बहू और बच्चों के बीच प्रसाद खाते हुए अम्मा जी बोली,”तुम सब भी उत्सव का प्रसाद खाओ।”
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** बुद्ध प्रकाश,
*** मौदहा हमीरपुर ।