पुरबी के जनक ‘महेंद्र मिश्र
भोजपुरी भाषा के लोकगायकी में जब भी किसी शख्सियत की बात होती है तो लोग बड़े ही गर्व से भिखारी ठाकुर का नाम लेते हैं, जबकि भोजपुरी के भारतेंदु कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र दोनों ही समकालीन थे। महेंद्र मिश्र बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोक गीतकरों में सर्वोपरि थे। वे लोकगीत की दुनिया में संगीत के सम्मानित बादशाह थे। उनके द्वरा रचित ‘पुरबी’ संगीत वहाँ-वहाँ पहुँची जहाँ भोजपुरी भाषा और भोजपुरी संस्कृति के लोग पहुंचे हैं। मॉरिसस, फ़िजी, सूरीनाम आदि देशं में उनके द्वारा रचित ‘पुरवी’ संगीत पहुँच गई। वे सिर्फ गायक ही नहीं अपितु आशुकवि, संगीतकार, कीर्तनकार, प्रवचनकर्ता और धर्मोपदेशक भी थे। महेंद्र मिश्र ने कभी भी दूसरों के द्वारा लिखा हुआ गीत नहीं गया। वे हमेशा अपने द्वारा ही रचित गीतों को गाया करते थे। भोजपुरी लोक गायकों के बीच महेंद्र मिश्र का नाम बड़े ही अदब और सम्मान के साथ लिया जाता था।
जिस समय हिंदी साहित्य के संत काव्य परम्परा के अंतिम कवि श्रीधर दास, धरनी दास और लक्ष्मी सखी आदि कवियों की भोजपुरी आध्यात्मिक रचनाएँ बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों में सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू फैलाकर कानों में गूंज रही थी, ठीक उसी समय महेंद्र मिश्र जी की रचनाएँ भी समाज के उद्धार और राष्ट्रीयता के आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का काम कर रही थी। समाज के प्रति एक सजग साहित्यकार के भूमिका का निर्वाह करते हुए मिश्र जी ने हिंदी भोजपुरी और इन दोनों भाषाओँ के मिश्रित रूप में भी संगीत दिया है। उस समय की यही मांग थी। यह उनके लेखन का प्रयोगमय पक्ष ही कहा जायेगा। उन्होंने केवल भोजपुरी भाषा में ही नहीं बल्कि भोजपुरी भाषा के साथ-साथ खड़ी बोली का भी प्रयोग किया है।
महेंद्र मिश्र का जन्म सारण जिला (बिहार) के मुख्यालय छपरा से 12 किलोमीटर उत्तर स्थित जलालपुर प्रखंड के नजदीक एक गाँव कांही मिश्रवलिया में 16 मार्च 1886 ई. मंगलवार को हुआ था। कांही और मिश्रवलिया दोनों ही गाँव नजदीक है बीच में एक नाला पड़ता हैं, जिसके किनारे होने के कारण इस गाँव को कांही मिश्रवलिया कहा जाने लगा। इस गाँव में कई जाति के लोग रहते थे पर ब्राहमणों की संख्या अधिक थी। महेंद्र मिश्र ब्राह्मण थे। मिश्र पदवीधारी लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के लागुनही धर्मपुरा से आकर बसे हुए थे। संभवतः रोजी-रोटी और शांति कि खोज में ये लोग पश्चिम से पूर्व की तरफ आए होंगे। गाँव में आकर बसने वाले पहले व्यक्ति का पता नहीं चलता है परन्तु महेंद्र मिश्र के छोटे भाई श्री बटेश्वर मिश्र आज भी जीवित हैं। मिश्र जी के परिवार के सदस्य बताते हैं कि महेंद्र मिश्र का जन्म किसी शिव भद्र साधु के आशिर्वाद से हुआ था। उसी साधु ने अपनी इच्छानुसार बालक का नाम महेंद्र रखा। महेंद्र मिश्र के पिता का नाम शिवशंकर मिश्र था। वे संपन्न परिवार के थे। छपरा के तत्कालीन जमींदार हलिवंत सहाय के वसूली क्षेत्र के एक छोटे से जमींदार थे। दोनों में गहरी मित्रता थी। संतान होने की बहुत प्रतीक्षा करने के बाद ‘पत्थर पर दूब’ की तरह महेंद्र मिश्र का जन्म हुआ था। उस समय मिश्रवलिया में एक संस्कृत पाठशाला था। उस पाठशाला के आचार्य पंडित नान्हू मिश्र थे। वे विद्वान पंडितों के श्रेणी में गिने जाते थे। पाठशाला उन्हीं के दरवाजे पर चलता था। गाँव के बीच में एक जोड़ा मंदिर था, जहाँ हनुमान जी का अखाड़ा था। मंदिर के प्रांगण में हमेशा रामायण मंडली के द्वारा गायन-वादन होता रहता था। अखाड़े में हमेशा कुश्तियाँ चलती रहती थीं। रामायण मंडली का प्रभाव संगीत के प्रति आकर्षण और कुश्ती के रोमांच ने महेंद्र मिश्र को शिक्षा के अखाड़े से दूर कर दिया। रामायण सुनने की अभिरुचि बढ़ी तो बढ़ती ही गई। मिश्रजी घोड़ा रखने के बड़े शौक़ीन थे। मिश्र जी छरहरे बदन के पहलवान थे। घर के लोगों के विशेष कोशिश से वे नान्हू मिश्र के पाठशाला में पढ़ने जाने लगे किन्तु उनका मन पढ़ने में नहीं लगता था। जिस समय पंडित जी संस्कृत के छात्रों को ‘अभिज्ञानशाकुंतालम’, ‘रघुवंशम’ और ‘ऋतुसंहारम’ आदि का प्रबोध कराते थे उस समय वे चुपचाप सब कुछ सुनते थे। उसी समय भक्ति-काव्य, श्रृंगार-काव्य और प्रकृति-वर्णन की परम्परा से उनका परिचय हुआ था। वहाँ के वातावरण ने असर दिखाया। उनके भीतर का कवि जागने लगा। उनकी बुद्धि और भाव देखकर लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि इस बालक के जिह्वा पर माँ सरस्वती का वास है। उनकी ईश्वरीय प्रतिभा दृष्टिगोचर होने लगी। विधिवत कोई विद्यालयी उपाधि उन्हें प्राप्त हुई थी या नहीं इसका कोई प्रणाम नहीं मिलता है। उनके सम्पूर्ण लेखन में आये तत्सम शब्दों का प्रयोग, यत्र-तत्र संस्कृत में उद्धृत संस्कृत के श्लोक तथा विधिवत् पौराणिक प्रसंग आदि सिद्ध करते हैं कि वे किसी न किसी रूप में संस्कृत साहित्य से परिचित अवश्य थे। जिस समय शिवशंकर मिश्र का निधन हुआ था उस समय बाबु हलिवंत सहाय का सितारा गर्दिश में था। उनके पट्टीदार लोगों से संपति पर हक़ के लिए उनका मुक़दमा चल रहा था। हलिवंत सहाय विधुर थे। इस बीच उन्हें एक सलाहकार और विश्वस्त व्यक्ति की जरुरत थी। उस समय मुजफ्फरपुर की एक प्रसिद्ध गायिका और नर्तकी की बेटी ढेलाबाई को हलिवंत सहाय के लिए महेंद्र मिश्र ने उनका अपहरण कर लिया। बाद में उन्हें अपने इस कर्म पर बड़ा दुःख हुआ और फिर उन्होंने ढेलाबाई की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी। फलतः हलिवंत सहाय ने उन्हें अपनी पूरी संपति का ट्रस्टी बना दिया था। असल में महेंद्र मिश्र उनके अन्तरंग मित्र, एक मात्र शुभचिंतक, अभिभावक और सलाहकार बन चुके थे। हलिवंत सहाय ने ढेलाबाई को अपनी पत्नी का सम्मनित दर्जा प्रदान कर दिया तथा वे चल बसे। उनके पट्टीदारों ने उनकी नई पत्नी ढेलाबाई को उनकी पत्नी मानने से ही इनकार कर दिया और उन्हें भगाकर सारी संपति से बेदखल करना चाहा। तब मिश्र जी ने अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए ढेलाबाई की मदद की। उनकी सारी संपति न्यायालय द्वारा जब्त कर ली गई थी। महेंद्र मिश्र अपनी छोटी जमींदारी की आय से ही ढेलाबाई की मदद करते थे।
पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा जा रहा था। जमींदारी प्रथा ध्वस्त हो रही थी। महेंद्र मिश्र भी एक छोटे जमींदार थे। उन्हें लगा कि वे न तो अपने परिवार के प्रति जिम्मेदार रह गए हैं और न ही अपने जमींदार मालिक स्वर्गीय हलिवंत सहाय के प्रति। उन्हें लगने लगा था कि वे ढेलाबाई की भी ठीक से सहायता नहीं कर पा रहें हैं। उनकी पहली पत्नी रुपरेखा देवी अपने माइके के संपति पर ही रहती थीं। पत्नी रूपरेखा देवी से उन्हें पुत्र हिकायत मिश्र का जन्म हो चुका था। उसी समय उन्होंने एक निर्णय लिया और वे कलकता चल पड़े। महेंद्र मिश्र ने सिर्फ देना सिखा था लेना या मांगना उनके शब्दकोष में था ही नहीं। इसका कारण था बचपन से लेकर यौवन तक उन्होंने अभाव कभी देखा ही नहीं था। पूरा यौवन काल हलिवंत सहाय के दरबार में, दरबारी संस्कृति में, सामंती परिवेश में तथा नजाकत नफासत से परिपूर्ण साफ सुथरी जीवन शैली में बीता था। पहली बार उन्हें अर्थाभाव महसूस हुआ। शायद यही कारण था कि उनका सम्पूर्ण कवि-कर्म सामंती-परिवेश और रीतिकालीन दरबारी संस्कृति के अभाव से मुक्त होकर आम आदमी के अभाव और संघर्षपूर्ण जीवन से पूरी तरह साहचर्य स्थापित नहीं कर सका। कलकता उस समय राष्ट्र की सभी औद्योगिक, राजनितिक एवं सांस्कृतिक उथल-पुथल का जीवित केन्द्र था। भोजपुरी क्षेत्र के हजारों लोग कलकता जीविकोपार्जन के लिए जाया करते थे। बंगाली समाज की सोच और उनके सामाजिक, राजनितिक जीवन दर्शन से वे पूर्ण परिचित थे। बंगाली युवकों के रगों में राष्ट्रभक्ति की तस्वीर और समर्पण की भावना उन्होंने इस यात्रा में महसूस किया था। विक्टोरिया के मैदान में नेताजी का उत्तेजक भाषण सुनकर महेंद्र मिश्र जी का मन भी बेचैन होने लगा कि उन्हें भी राष्ट्र के लिए कुछ करना चाहिए। एक दिन एक अंग्रेज अफसर जो अच्छी तरह से भोजपुरी और बंगला दोनों समझता था। मिश्र जी को ‘देशवाली’ समाज में गाते देखा था। उसने इनको नृत्य-गीत के एक विशेष स्थान पर बुलवाया। ये वहाँ गए और उनसे बातें हुई। वह अंग्रेज मिश्र जी से बातें करके बहुत प्रभावित हुआ। इनके कवि की विवशता, हृदय की हाहाकार, ढेलाबाई के दुखमय जीवन की कथा, घर परिवार का खस्ताहालत तथा राष्ट्र के लिए कुछ करने की ईमानदारी की तड़प को देखकर अंग्रेज ने इनसे कहा, तुम्हारे भीतर कुछ ईमानदार कोशिशें हैं। हम लंदन जा रहे हैं। मेरे पास नोट छापने की मशीन है वह लो और मुझसे दो चार दिन में काम सीख लो। यह सब घटनाएँ सन् 1915 से 1920 के आस-पास की है।
महेंद्र मिश्र नोट छापने की मशीन लेकर मिश्रवलिया लौट आये। नोट छापने का काम मिश्रवलिया में गुप्त रूप से शुरू हो गया। जिसके कारण घर की रईसी फिर से लौटने लगी। छोटे भाई अब बड़े हो रहे थे। पारिवारिक खर्च के अलावा अब वे असहाय ढेलाबाई की मदद भी कर सकते थे। ढेलाबाई का मुक़दमा ठीक से देखा जाने लगा। रिश्तेदार और सगे-सम्बन्धियों का सेवा-सत्कार भी पहले की तरह जमींदारी ठाट जैसा होने लगा। दरवाजे पर अब दो-दो हाथी झुमने लगे। सोनपुर मेला से सबसे महंगे घोड़े खरीद कर आने लगा। हनुमान जी की पूजा शानदार ढंग से होने लगा। झुण्ड के झुण्ड पहलवान और ज्ञात-अज्ञात स्थानों से साधु-संत महात्मा आने लगे। अनगिनत पलवान और बदमाश रात-दिन कुश्ती करते तथा भोजन माँग-माँगकर खाते और पड़े रहते थे। अनेक अज्ञात लोग रात के समय में आते थे और सुबह ही चले जाते थे। यह बात सिर्फ महेंद्र मिश्र को ही पता होता था कि कौन कहाँ से आया है और कौन कहाँ जायेगा तथा उसे क्या देना है। जो भी असहाय गरीब एवं जरूरतमंद आता था, मिश्र जी उसकी खूब मदद करते थे। दिन-रात गीत-गवनई की महफ़िल गुलजार रहता था। मिश्र जी स्वयं भी छपरा, मुजफ्फरपुर, पटना, कलकता और पश्चिम में बनारस, ग्वालियर और झाँसी तक के गायकों के पास वे स्वयं पहुंचकर गाते और संगत करते थे। उनकी गायन-वादन की कला दिन पर दिन निखरती ही जा रही थी। संगीत में उनकी रूचि बहुत ही गहरी थी। उनकी इस तरह से रूचि को देखकर कहा जा सकता है कि संगीत और काव्य सृजन उनके रोम-रोम में बसा हुआ था। तात्पर्य यह है कि लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की साधना चलने लगी। अनेकों क्रन्तिकारी युवक मिश्रवलिया आने लगे। मिश्र जी उनकी भरपूर आर्थिक मदद करते थे। गाँधी जी के आह्वान पर आयोजित होने वाले धरना, जुलूस, पिकेटिंग आदि कार्यक्रमों में भाग लेने वाले सत्याग्रहियों के भोजन आदि का संपूर्ण व्यय भार का वहन भी मिश्र जी करते थे। महेंद्र मिश्र के अनेक मित्र गाँव-जवार में घूम-घूमकर पंचायत करते थे। दूसरी तरफ धीरे-धीरे सम्पूर्ण उत्तरी भारत में जाली नोटों की भरमार हो गई। तब जा के अंग्रेजी सरकार के खुफिया विभाग के कान खड़े हुए। उस समय छपरा मुफसिल थाना के अंतर्गत ही जलालपुर था। थाना को मालूम था कि नोट कहाँ छपते है क्योंकि पूरे कार्यक्रम में थाना की मिलीभगत थी। इसी कारण किसी को सीधा पता नहीं चलता था। हलिवंत सहाय का मित्र, सहायक जानकर भी थाना चुप लगा जाता था। नोट छापने के काम में चिरांद के गंगा पाठक आदि कई लोग शामिल थे। इन सबके बीच मिश्र जी की संगीत-साधना चलती रहती थी। इस बात में कोई संदेह नहीं था कि महेंद्र मिश्र हलिवंत सहाय के रंगीन मुजरा महफ़िल में भी गाते थे और कभी-कभी नर्तकियों-गायिकाओं के निवास पर भी जाकर गायन-वादन में संगत करते थे। इस शौक का मूल कारण उनका संगीत प्रेम था। मिश्र जी के संगीत प्रेम की तुलना उसी प्रकार हो सकती है जैसे जयशंकर प्रसाद संगीत प्रेम में वशीभूत होकर बनारस की प्रसिद्ध गायिका सिद्धेश्वरी बाई के पास जाते थे अथवा भारतेंदु हरिश्चंद्र बंगाली गायिकाओं, मल्लिका और माधवी के कोठे पर जाते थे। कविता लिखने एवं संगीतमय संगीत लिखने की प्रेरणा प्राप्त करते थे। जिस प्रकार रीतिकाल के कवि घनानंद ने सुजान के साहचर्य से अपनी भावयित्री-कवयित्री प्रतिभा के विन्यास के लिए कोमलता, प्रेरणा और गम्भीर प्रेम की अभिव्यंजना-शक्ति प्राप्त किया था उसीप्रकार मुजरा महफ़िल तथा नर्तकियों-गायिकाओं के निवास पर गायन-वादन में संगत करके महेंद्र मिश्र अपनी प्रेरणा और कलाकार मन को पुष्ट करते थे।
महेंद्र मिश्र का मस्तिष्क राष्ट्रीय आन्दोलनों तथा उसमे शरीक हजारों लाखों व्यक्तियों की सेवा और त्याग की तरफ खींचता था। कवि की विवशता थी कि वह दोनों में से किसी को भी छोड़ नहीं सकता था। उनके लिए एक कामायनी की ‘श्रद्धा’ थी तो दूसरी कामायनी की ‘इडा’। जिस प्रकार दिनकर की पारिवारिक विवशता थी कि उन्हें अंग्रेजों की गाड़ी पर चढ़कर अंग्रेजी सरकार की प्रशंसा के गीत गाना पड़ता था ठीक उसी प्रकार की विवशता महेंद्र मिश्र के साथ भी थी। परिवार, समाज और राष्ट्र के सेवा के सामानांतर संगीत एवं कविता का सृजन करना था। दिनकर और महेंद्र मिश्र की मज़बूरी एक जैसी ही थी क्योंकि दोनों देश के लिए कुछ कारण तो चाहते थे पर दोनों अपने परिवार की वास्तविक माली हालत से टूटे हुए भी थे। महेंद्र मिश्र दोनों कार्य सधे हाथों से करते रहे। जो कवि यह लिख सकता था-
“एतना बता के जईह कईसे दिन बीती रामा”- तथा “केकरा पर छोड़ के जईब पलानी, केकरा से आग मांगब केकरा से पानी”
वह आदमी समाज की घोर दरिद्रता, घोर संकट और यथार्थ जीवन से खूब परिचित था, इसमें कोई संदेह नहीं है। इस कथन पर सहज ही विश्वास हो जाता है क्योंकि उनके एक अधूरे गीत से पता चलता है-
हमरा नीको ना लागे राम गोरन के करनी
रूपया ले गईले, पईसा ले गईले, ले गईले सारा गिन्नी
ओकरा बदला में दे गईले ढल्ली के दुअन्नी।
मिश्रवालिया के आसपास के अनेक वृद्ध व्यक्ति साक्षात्कार के समय बताते थे कि महेंद्र मिश्र गुप्त रूप से क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर शहीद होने वाले परिवारों को खुले हाथों से मदद करते थे। रामनाथ पांडे ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘महेंद्र मिसिर’ में स्वीकार किया है कि महेंद्र मिश्र अपने सुख-स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि शोषक ब्रिटिश सरकार की अर्थव्यवस्था को धाराशाही करने और उसके अर्थनीति का विरोध करने के उद्देश्य से नोट छापते थे। इन्स्पेक्टर जटाधारी को नोट छापने वाले व्यक्ति का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके साथ सुरेन्द्रनाथ घोष भी थे। जटाधारी प्रसाद ने भेस और नाम बदल लिया। अब वे गोपीचंद बन गए और महेंद्र मिश्र के घर नौकर बनकर रहने लगे। धीरे-धीरे गोपीचंद उर्फ़ गोपीचनवा महेंद्र मिश्र का परम विश्वस्त नौकर बन गया। उसी के रिपोर्ट पर 06 अप्रैल सन् 1924 ई. को चैत की अमावस्या की रात में एक बजे महेंद्र मिश्र के घर डी.एस.पी. भुवनेश्वर प्रसाद के नेतृत्व में दानापुर की पुलिस ने छापा मारा। पुलिस की गाड़ियाँ उनके घर से एक किलोमीटर की दुरी पर खड़ा किया गया। पाँचों भाई और गोपिचंवा मशीन के साथ नोट छापते पकड़े गए। गनीमत यह थी कि नोट छापते समय महेंद्र मिश्र सोये हुए थे और दूसरे लोग नोट छाप रहे थे। महेंद्र मिश्र पकड़े गए। उनका मुक़दमा हाई कोर्ट तक गया। लोअर कोर्ट से सात वर्ष की सजा हुई थी। बाद में उनकी सजा महज तीन वर्ष की हो गई थी। जेल जाते समय गोपीचंद उर्फ़ जटाधारी प्रसाद ने अपनी आँखों में आंसू भरकर मिश्र जी से कहा, बाबा हम अपनी डियूटी से मजबूर थे। हमें इस बात की बड़ी प्रसन्नता हुई कि आपने देश के लिए बहुत कुछ किया है और देश के लिए ही आप जेल जा रहें हैं। गोपीचंद की इस बात को सुनकर महेंद्र मिश्र जी के कंठ से कविता कि दो पंक्तियाँ दर्द बनकर निकली-
“पाकल-पाकल पनवा खियवले गोपिचनवा, पिरितिया लगाके भेजवले जेलखानवा”।
उस समय गोपीचंद ने महेंद्र मिश्र के पाँव पकड़कर उसने भी वही पंक्तियाँ मिश्र जी को सुनाई-
“नोटवा जे छापी गिनियाँ भजवल हो महेंदर मिसिर,
ब्रिटिश के कईल हलकान हो महेंदर मिसिर,
सगरी जहनवामें कईलन बड़ा नाम हो महेंदर मिसिर,
पड़ल बा पुलिसवा के काम हो महेंदर मिश्र।“
गोपीचंद ने महेंद्र मिश्र से कहा- बाबा हमें बहुत अफ़सोस है। मेरे मन में भी देश सेवा करने का एक सपना था लेकिन वह पूरा नहीं हो सका, कारण मेरी सरकारी नौकरी थी। आप महान हैं कि आपने देश के लिए बहुत कुछ किया। महेंद्र मिश्र बक्सर जेल में भेजे गए पर वे जेल में बहत कम दिन ही रहे। वे जेल में भी संगीत और कविता की रसधार बहाते रहे। जेलर की पत्नी और बच्चों को वे सरस स्वरचित भजन कविता सुनाते तथा सत्संग करते थे। जेल में ही उनका भोजपुरी का प्रथम महाकाव्य और उनका गौरव-ग्रंथ “अपूर्व रामायण” रचा गया। यह ध्यातव्य है कि महेंद मिश्र को काव्य संगीत सृजन की कला किसी विरासत में नहीं मिली थी। जो भी उनके द्वारा सृजन किया गया वह स्वतःस्फूर्त था। वे अति समाजिक व्यक्ति थे। वे जहाँ भी रहते थे, विभिन्न दृष्टान्तों एवं घटनाओं से सबको हँसाते रहते थे और किसी भी समाज पर छा जाते थे। वे विभिन्न प्रकार के कहानी, चुटकुले, दोहे तथा कहावतों से वातावरण को सजीव बना देते थे। हाजिर जवाबी और वाकपटुता में वे अद्वितीय थे। ज्यादातर वे तबला और हारमोनियम बजाते थे। जेल से छुटकर घर आने के बाद वे कीर्तन तथा रामकथा और कृष्णकथा सुनते थे। नौटंकी शैली में उनका कीर्तन बहुत ही प्रभावशाली होता था। तबला, हारमोनियम के अतिरिक्त ऐसा कोई भी वाद्य-यंत्र नहीं था जिसे वे नहीं बजाते थे। वे पूरे अधिकार के साथ किसी भी वाद्य-यंत्र को बजाते थे। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि उनका कोई भी संगीत गुरु नहीं था, कोई रहा भी हो तो उन्होंने उसकी कहीं पर भी चर्चा नहीं किया है। सभवतः सब कुछ उनकी साधना से उपलब्ध था। प्रारंभिक दिनों को छोड़ दे तो उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्षपूर्ण एवं करुण रहा था। ऊपर से वे भले ही हास्य-विलासपूर्ण जीवन जीते रहे लेकिन उनके भीतर एक कोमल और अत्यंत ही संवेदनशील कवि था। मूलतः वे साहित्य प्रेमी और सौहार्दप्रेमी कलाकार थे। वैसे भी कहा जाता है कि जिसने अभाव, संघर्ष और पीड़ा को आत्मसात नहीं किया हो, जिसने स्वयं के भीतर विरह की बाँसुरी ना बजाई हो वह कविता कभी लिख ही नहीं सकता है। महेंद मिश्र ने प्रेम और सौहार्द को भोगा और जिया था। यही कारण था कि उनकी श्रृंगारिक कविताओं में एक प्रकार की रोमांटिक संवेदना थी। प्रेम की कोमलता थी। उनकी कविताओं में काम की भूख और मानसिक द्वंद्व भी है तो भक्ति परक रचनाओं में मानव नियति की चिंता भी है। रामचरित मानस और रामायण उन्हें कंठाग्र था। जिस प्रकार तुलसी जी ने पांडित्य संस्कृत का त्याग कर अवधी भाषा का प्रयोग किया और राम कथा को जन-जन तक पहुंचाया उसी प्रकार महेंद्र मिश्र ने भोजपुरी भाषा में कथा वाचक शैली में जीवन भर राम कथा का प्रचार-प्रसार किया। जब वे राम कथा का कीर्तन करते थे तब बीस-बीस हजार श्रोता मन्त्र-मुग्ध होकर रात-रात भर उन्हें सुनते रहते थे। यही कारण था कि महेंद्र मिश्र की कविताओं को सुनने जानने की उत्कंठापूर्ण लालसा सुदूर अंचलों, प्रान्तों तक की लोगों में थी। प्रसाद गुण और माधुर्य गुण से पुष्ट उनकी भाषा मानों आत्मा के लिए प्रकाश की खोज कर रही हो। अंतिम समय में वे मात्र आठ दिन ही बीमार रहे। आँख की रोशनी, मनुष्य को पहचानने की क्षमता तथा कविता से प्रेम उनके अंतिम क्षण तक बने रहे। 26 अक्टूबर 1956 ई. को मंगलबार की सुबह में बिरहा और भैरवी का तन उठना थम गया। छपरा के शिवमंदिर में कवि ने अपने नश्वर शरीर का पिरित्याग कर दिया। महेंद्र मिश्र का रचना काल 1910-1935 ई० तक रहा। वह काल हिदी साहित्य में छायावादी काल था लेकिन छायावादी साहित्य से महेंद्र मिश्र जी का कोई सम्बन्ध नहीं था। आम जानता की रूचि और संस्कार का परिस्कार करने हेतु उन्होंने भिखारी ठाकुर को सिखाया कि भजनों, आध्यात्मिक प्रसंगों तथा कीर्तन आदि द्वारा समाज का उधार करना भी राष्ट्रभक्ति का ही एक रूप है। महेंद्र मिश्र के बहुत से मौलिक एवं कल्पित प्रसंगों तथा गीतों की धुन की नींव पर भिखारी ठाकुर ने अपने लोक नाटकों की शानदार ईमारत खड़ी की। समाज में फैली कुरीतियों तथा गलत चीजों के प्रति उनके मन में विद्रोह का भाव था। कुलटा स्त्री, बेमेल विवाह और भ्रष्ट आचरण से सम्बंधित उनकी अनेक कवितायेँ इस कथन का प्रमाण है। अपनी रचनाओं से उन्होंने भोजपुरी भाषा, साहित्य और समाज की जो सेवा की वह अपूर्व है। उनके कविताओं में कहीं भी भदापन, ठेठपन और गंवारूपन नहीं है। इसी विशेषता के कारण उनकी रचनाओं को लोक कंठ से कभी भी विस्मृत नहीं किया गया। उनकी कविताओं को पुस्तक का आकर नहीं मिली लेकिन उनकी कवितायें कंठ से कंठ तक विस्तार पाती रहीं। इस प्रकार वे संगीत की वाचिक परंपरा को पोषित करती रहीं। भोजपुरी के एक विद्वान आलोचक महेश्वराचार्य का यह कथन बिल्कुल उचित है- “जो महेंद्र न रहितें त भिखारी ना पनपतें। उनकर एक-एक कड़ी ले के भिखारी भोजपुरी संगीत रूपक के सृजन कईले बाडन। भिखारी के रंगकर्मिता, कलाकारिता के मूल बाडन महेंद्र मिश्र जेकर ऊ कतहीं नाम नईखन ले ले। महेंद्र मिश्र भिखारी ठाकुर के रचना-गुरु, शैली-गुरु बाडन। लखनऊ से लेके रंगून तक महेंद्र मिसिर भोजपुरी के रस माधुरी छीट देले रहलन, उर्वर बना देले रहलन, जवना पर भिखारी ठाकुर पनप गईलन हाँ”।
भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका में श्री महेश्वराचार्य के निबंध में- आज भी महेंद्र मिश्र के साथी समकालीन बुजुर्गों और भिखारी ठाकुर के जीवित समाजी लोग बताते हैं कि “पूरी बरसात भिखारी ठाकुर, महेंद्र मिश्र के दरवाजें पर बिताते थे। महेंद्र मिश्र ने भिखारी ठाकुर को झाल बजाना सिखाया था”। (भिखारी ठाकुर के समाजी भदई राम, शिवलाल बारी और शिवनाथ बारी से साक्षात्कार। डा. सुरेश कुमार मिश्र एवं डा. रविन्द्र त्रिपाठी) महेंद्र मिश्र का “टुटही पलानी” वाला गीत ही भिखारी ठाकुर के “बिदेशिया” फिल्म की नींव बन गई। ‘पुरबी’ गीत उनसे पहले भी था लेकिन इसका पता नहीं चलता था। महेंद्र मिश्र जी को भोजपुरी भाषी जानता “पुरबी का जनक” मानती है। उनके पुरबी गीतों की काफी नकलें करने की कोशिश की गई, पर असली तो असली ही रहेगा एक और विद्वान ने संत साहित्य परम्परा का गहन विशलेषण कर दिखलाया है कि महेंद्र मिश्र के पहले भी निर्गुनिया संतों ने पुरबी नाम से कई पद लिखा है। (महेंद्र मिश्र और पूर्वी लेखन की परम्परा लेखक विनोद कुमार सिंह। “सारण वाणी” महेंद्र मिश्र विशेषांक में प्रकाशित) पर उनके और महेंद्र मिश्र के गीतों में बहुत अंतर है। मिश्र जी के पुरबी गीतों की तासीर ही कुछ अलग थी। महेंद्र मिश्र के पुरबी गीत न तो किसी परम्परा की उपज है, ना ही नक़ल है और ना ही उनकी कोई नक़ल कर सकता है। भोजपुरी के किसी भी कवि या गीतकार की तुलना में महेंद्र मिश्र का शास्त्रीय संगीत का ज्ञान अधिक व्यापक एवं गंभीर था। उन्होंने कविता और संगीत के रिश्ते पर विचार किया जैसे सूरदास, निराला एवं प्रसाद ने किया था। उनकी कविता सिद्ध करती है कि कविता में संगीत का तत्व कितना आवश्यक है। खासकर आज के समय में मंचीय कवियों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। कविता का संगीत और लय से रिश्ता लगभग समाप्त होता जा रहा है, तब उनकी कविता का महत्व बढ़ जाता है। वे जानते थे कि जिस तरह नाटक अभिनेयता के कारण ही सम्पूर्णता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार कविता सांगीतिक तत्वों के साहचर्य से ही खिलती है और वास्तविक भावक के हृदय तक संप्रेषित होती है। उन्होंने व्याख्यान तथा कीर्तन का मंच भी अपनाया और जीवन भर कविता लिखते रहे। उनके गीत ‘अर्थ’ और ‘अनुभव’ की अनेक धाराओं को खोलने वाले हैं। वे बड़ी ही सहजता के साथ अक्षर और ध्वनि के बीच संगीत खोज लेते थे। यही कला उनको एक समर्थ कवि और गीतकार के रूप में उपस्थित करती है। मिश्र जी की चिंता में मानवीय भाव, जगत के विभन्न व्यापार, जिनमे संयोग की चिंता बहुत कम और वियोग की मार्मिकता अधिक है। एक साहित्यकार की संवेदनशीलता ही इस संकट की घड़ी में मानव के साथ है। ऐसी कविता जो दिल को छू सके, चित को शीतलता और शांति प्रदान कर सके- यही भाव महेंद्र मिश्र की लेखनी से निकलती थी। उनकी कविता सहज रूप से मन को कहीं छूती और कुछ महसूस कराती है। मिश्र जी द्वारा प्रणीत गीतों, बीसों काव्य- संगहों की चर्चा उनके “अपूर्व रामायण” तथा अन्य स्थानों पर आई है। महेंद्र मंजरी, महेंद्र विनोद, महेंद्र दिवाकर, महेंद्र प्रभाकर. महेंद्र रत्नावली, महेंद्र चन्द्रिका, महेंद्र कुसुमावती, अपूर्व रामायण सातों कांड, महेंद्र मयंक, कृष्ण गीतावली, भीष्म वध नाटक, भागवत दशम स्कंध आदि की चर्चा हुई है। लेकिन इनमे से अधिकांश आज उपलब्ध नहीं है। इनमे से एकाध प्रकाशित हुए और शेष आज भी प्रकाशित नहीं हुए है। संभवतः ये छोटे-छोटे काव्य-संग्रह होंगे और कुछ उनके साथ के गायक मित्रों द्वारा ले लिए गए होंगे अथवा सम्यक रख-रखाव के अभाव में काल कवलित हो गए होंगे। कवि ने अपने अपूर्व रामायण के अंत में अपना परिचय एक स्थान पर दिया है, जो प्रमाणित परिचय है।
मउजे मिश्रवलिया जहाँ विप्रन के ठाट्ट बसे,
सुन्दर सोहावन जहाँ बहुते मालिकान है।
गाँव के पश्चिम में बिराजे गंगाधर नाथ,
सुख के सरूप ब्रह्मरूप के निधाना है।
गाँव उत्तर से दक्खिन ले सघन बाँस,
पुरुब बहे नारा जहाँ काहीं का सिवाना है।
द्विज महेंद्र रामदास पुर के ना छोड़ों आस,
सुख-दुःख सब सह कर के समय को बिताना है।
दरबारी संस्कृति एवं सामंती वातावरण में रहकर भी महेंद्र मिश्र दरबारीपण से अलग रहे। हलिवंत सहाय जैसे वैभव विलासी के दरबार में रहकर उन्होंने अपने आश्रयदाता के प्रशंसा में एक भी कविता नहीं लिखी है। रीतिकाल के काव्य परम्परा का प्रभाव उनके साहित्य पर था। तथापि राधा-कृष्ण के प्रेम चित्रण के नाम पर नख-शिख वर्णन, काम-क्रीडा दर्शन, शब्द चातुरी अथवा दोहरे अर्थ वाले वाक्यों का प्रयोग उन्होंने नहीं किया। वे मूलतः संस्कारी भक्त थे, जिन पर राम भक्ति काव्य परम्परा एवं कृष्ण भक्ति काव्य परम्परा का ही विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। अगर तुलसीदास जी ने राम भक्ति काव्य प्रसाद निर्मित किया है तो महेंद्र मिश्र ने भी शीतल राम मडैया को खड़ा करने की कोशिश की है। उनकी कृष्ण भक्ति की कविताओं की अपेक्षा राम भक्ति की कविताओं में भक्ति तत्व अधिक है। ऐसा शायद इसलिए भी हुआ था क्योंकि वे हनुमान जी के परम भक्त थे। असल में महेंद मिश्र का युग ही वैसा था। असल में उनसे पहले भोजपुरी साहित्य का सृजन भी कम ही हुआ था। उस समय का हिंदी साहित्य में भक्ति और श्रृंगार की मिली-जूली परम्परा का निर्वाह जिस प्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया उसी प्रकार महेंद्र मिश्र ने भी किया। उनका हृदय भक्ति के रस में डूबा हुआ था। उनकी संगीत साधना श्रृंगार एवं प्रेम से भरा हुआ था। अपने जीवन का अधिकांश समय उन्होंने अपने सुख-वैभव से व्यतीत किया था। अतएव उनका रस प्रेमी हृदय उनकी रचनाओं में स्वतः अभिव्यक्त हो गया था। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि उनकी साधनाओं में कहीं पर भी बौद्धिक आध्यात्मिकतापन नहीं है बल्कि आनंद की सरिता में अवगाहन की कोशिश है। उनकी रचनाओं का आधार श्रृंगारिक, पर मिल भावना भक्तिमय ही है। उन्होंने भोजपुरी एवं खासकर पुरबी गीतों का अद्भूत परिमार्जन किया है।
महेंद्र मिश्र इन्द्रधनुषी रचनाकार थे। उनकी कविताओं ने अगर अपनी पहचान अंतर्राष्टीय स्तर पर बनाई है तो अवश्य ही उनमे कुछ विशिष्टता रही होगी। उन्होंने अपनी रचनाओं से भाषा एवं साहित्य दोनों को समृद्ध किया है। रचनाकार का कार्य है रचना करना, रचना की सार्थकता और सामर्थ्य तय करना पाठकों का काम होता है। महेंद्र मिश्र की रचनाओं की समर्थतता तो वेशक आम जानता ने तय कर ही दिया है। भोजपुरी के लगभग सभी गायकों जैसे शारदा सिन्हा से लेकर चन्दन तिवारी तक ने महेंद्र मिश्र के गीतों को अपनी आवाज दी है। कहते हैं कि- ‘होंगे कई कवि लेकिन महेंद्र मिश्र जैसा न कोई हुआ और न होगा’।
जय हिंद