पुकारती हुई पुकार आज खो गयी है कही
पुकारती हुई पुकार आज खो गयी है कही
ऐसा प्रतीत होता है विलुप्त हो गयी है कही
अब उस आवाज़ को सुनने को जगमगाती रहती है लालसा
हर किसी से करता हूँ सम्पर्क
प्रत्येक से पूछता हूँ तुम्हारा हाल
हर किसी से बतियाता हूँ पहचान बनाता हूँ
इसी बहाने विलुप्त हो गयी पुकार का पता पूछ आता हूँ
कभी कभी भ्रम होता है तुम्हारे होने के एहसास का
लेकिन तुम बसी हो मेरी यादों में,ख़्वाबों में
धड़कती दिल की धड़कन में,चलती साँसों में
जिसके सहारे मैं आज भी जीवित हूँ
इस आस में जीवित हूँ,की
तुम आओगी एक दिन , एक बार अकस्मात जैसे
आसमाँ में स्वर्णिम रेखाए उभरती है
स्वयं के अधूरे इन शब्दों में
टूटी फूटी पंक्तियों में उभर आती हो तुम
टटोलता हूँ तुमको उनमे लेकिन फिर वही निराशा
उन्ही से अपना जी बहला लेता हूँ
खुद को मना लेता हूँ
यादों में तुम्हारी दिन गुज़ार लेता हूँ
इस झूठी आस में ही सही लेकिन खुद को सम्भाल लेता हूँ।
भूपेंद्र रावत