‘पितृ अमावस्या’
‘पितृ अमावस्या’
म्याऊँ-म्याऊँ की कातर ध्वनि ने दिवाकर की तंन्द्रा को भंग कर दिया था। वह पचच्चीस-तीस बरस पीछे की दुनिया में खोया हुआ था। बीता हुआ एक-एक पल उसकी आँखों के सामने चल-चित्र सा नजर आ रहा था । उसे ऐसा एहसास हो रहा था जैसे वो तीस साल पुरानी जिन्दगी में जी रहा हो।
पढ़ाई पूरी करने के बाद वो नौकरी की तलाश में शहर क्या गया कि वहीं का होकर रह गया था।
माता-पिता छोटे भाई के साथ गाँव में ही रहते थे। एक साल पहले ही उसके पिता का स्वर्गवास हुआ था।
दिवाकर अपने पिता की बरसी करने के लिए गाँव आया हुआ था। दोनों भाई पिता की बरसी खूब धूम-धाम से करना चाहते थे। 51 ब्राह्मणों को भोज का निमंत्रण के साथ-साथ पूरा गाँव भी आमंत्रित था।
पाँच दिन बाद पिता की बरसी थी। उसके मन में अचानक विचार आया कि क्यों न इस बार गाँव में हर परिवार से मिल लिया जाए। बस वो हर घर में जाकर सबसे मिलता- जुलता और हाल-चाल पूछता। कुछ लोग तो स्वर्ग सिधार गए थे। जिनके सामने वह पला-बढ़ा और खेला-कूदा था। कुछ काफी उम्र के हो गए थे। उनसे मिलकर उसे बहुत अच्छा लगा था। कुछ दोस्त भी दूर-दूर चले गए थे ।एक दो दोस्त वहीं गाँव में खेती बाड़ी करते थे।
एक दिन दिवाकर पुरानी यादों को समेटे हुए घर की ओर चला जा रहा था कि अचानक उसकी नज़र एक पुरानी खंडहर सी झोंपड़ी पर पड़ी।वह कुछ देर वहीं ठिठक गया; अगले पल कुछ सोचते हुए वह तेज -तेज कदमों से चलता हुआ अपने घर की तरफ निकल गया।वह सीधा किचन में गया और एक कटोरी आटा निकाल कर देशी घी में उसका हलवा बना दिया। उसने एक दोना लिया और उसमें हलवा भरकर घर से निकल पड़ा।
अंधेरा होने लगा था रात्रि के सात बज रहे थे, रात भी अंधेरी थी और ऊपर से पितृविसर्जन अमावस्या। दिवाकर तेज चाल से चलता हुआ उस खंडहर सी झोंपड़ी के पास रुक गया। जिसके टूटे फूटे दरवाजे पर जंग लगी सांकल अभी भी कुंडे से लटक रही थी।
झोपड़ी की पीछेवाली कच्ची दीवार पर एक एक खुली खिड़की थी।
दिवाकर ने दोना खिड़की से अंदर सरका दिया था। तभी अचानक एक हवा का झोका आया और दोना अंदर जा गिरा। जैसे दिवाकर की भेंट स्वीकार कर ली गई हो।
दिवाकर कर को अपने बचपन की पुरानी बातें याद आने लगीं। कैसे सब बच्चे वीरा ताई को इसी खिड़की से रात को आकर सिरकटे भूत के नामसे डराया करते थे।
और दोपहर को उसके आंगन में लगे जामुन के पेड़ के नीचे बैठकर लड़कियाँ गिट्टे खेलती थी और लड़के मिट्टी में गड्ढे बना-बना कर कंचे खेला करते थे। खूब शोरगुल मचाने पर ताई सब को अपने अपने घर जाने को कहती थी,पर किसी पर कोई असर कहाँ होता था! ताई अकेली जो रहती थी। हम बच्चे ही ताई का छोटा-मोटा काम भी कर दिया करते थे; खासकर रसोई का छुट-पुट सामान लाना, चूल्हे में फूँक मारना , कुंँए से पानी भर लाना आदि। कभी-कभी ताई आटे का देशी घी में बना हलवा भी बच्चों को खिलाती थी। उन्हे आटे का देशी घी में बना हलवा बहुत पसंद था। सभी वीरा ताई से घुल-मिल गए थे। दिवाकर ने सोचा न जाने गाँव फिर कब आना होगा। क्यों न ताई को भी श्रद्धांजलि देता जाऊँ।
और न जाने क्या-क्या सोच रहा था दिवाकर ?तभी बिल्ली की आवाज उसे वर्तमान में ले आई थी, जैसे वीरा ताई ही उसे साक्षात आशीष दे रही थी ।
मौलिक एवं स्वरचित
लेखिका-Gnp
©®