पिता
पिता
मैं सातवीं कक्षा में था, आम लड़कों की तरह खेलता, पढ़ता और मस्त रहता था, बहुत मित्र थे मेरे, इस गली से उस गली तक , फिर पूरे शहर तक मैं जहाँ भी जाता, लोग मुझे जानते थे , और मैं उन्हें, मन में एक अजीब सी मस्ती छाई रहती थी ।
एक दिन मैं स्कूल से अचानक बुला लिया गया , गली के नुक्कड़ तक आते आते मेरे रोंगटे खड़े हो गए , मेरे घर से ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ें आ रही थी, मैं बदहवास सा घर पहुँचा, घर पहुँचने पर पता चला मेरे पिता का शव बरामदे में पड़ा है, घर पड़ोसियों, रिश्तेदारों, मित्रों, से ठसाठस भरा था । मेरी माँ , तीन बड़ी बहनें रो रोकर बेहाल थीं । सब लोग मुझे आ आकर मिलने लगे ,
‘ अब मैं घर का मुख्या हूँ ,’ मेरे ताऊ जी ने कहा ,’ बहुत जिम्मेवारी आन पड़ी है तेरे सिर पर ‘ किसी और ने कहा।
मैंने मां की ओर देखा , वो बेहाल थी, उसे खुद सहारे की जरूरत थी, वो पत्थर बनी बैठी रही. मुझसे दो साल बड़ी नीना, बात बात पर लड़ने वाली लड़की , मुझे आकर चिपक गई,
‘ यह क्या हो गया भाई ?’ मुझे बड़ा अटपटा सा लगा , हमेशा मुझे बंदर कहने वाली बहन भाई कह रही थी. बड़ी बहन जो नर्सिंग का कोर्स कर रही थी, सूजी आँखों से उठ कर मेरे पास आई ,
‘“ माँ की हालत तो तुम देख ही रहे हो, यह सब अब तुम्हें करना है , तायाजी से बात करके पिताजी की अंतिम यात्रा की तैयारी करो । “
मैं किसी मशीन सा वो सब करने में जुट गया, जो मुझसे कहा जा रहा था । पंडित जी ने न जाने मुझसे क्या वचन बुलवाये, और वो पिता जो मेरे सभी प्रश्नों का उतर थे , उन्हें मैंनें आग में झोंक दिया ।
कई दिनों तक ये धार्मिक क्रियाएं चलती रही , और हर पल मैं बुजुर्ग होता रहा । चौदवें दिन मां ने कहा ,
“ आज से स्कूल जाना शुरू कर दो, परन्तु शाम को खेलने की बजाय पिताजी के बिज़नेस को संभालना शुरू करो, हम सब तुम्हरी मदद करेंगे ।”
मैं स्कूल चला गया, क्लास में पूरा समय वो मंत्र, बातें, मृत शरीर, सूजी आंखें, मेरे भीतर घटते रहे , मैं देख रहा था क्लास में मेरा स्थान अब पहले जैसा नहीं था, अध्यापक मुझे विशेष संवेदना से देख रहे थे, मेरे मित्र मुझसे संभल कर बोल रहे थे , मेरे भीतर एक क्रूरता जाग रही थी , इस संवेदना का लाभ उठाने की, फिर दूसरी तरफ एक बेचारगी भी जाग रही थी, आज मैं इन सब से बहुत कम हो गया था, जो इन सब के पास था , वह मेरे पास नहीं था ।
समय बीतता रहा , और हम धीरे धीरे धुरी पर आने लगे, परन्तु मेरा अकेलापन और बजुर्गियत दिन पर दिन बढ़ती रही ।
ऐसे में एक दिन मुझे स्वाति मिली , सोलह वर्ष की , मुझसे दो वर्ष छोटी , उसके भी पिता नहीं थे, जब वो छः वर्ष की थी, अचानक छत से गिर कर गुज़र गए थे । वह हमसे कहीं अधिक संपन्न परिवार से थी । मां डॉक्टर थी, और घर की देखभाल दादी करती थी , स्वाति बहुत खुशमिजाज और मस्त रहने वाली लड़की थी, वो अक्सर माँ से अधिक पिता की बातें करती, उसकी नजरों में उसके पिता वो सब थे जो एक महान पहुंचा हुआ मनुष्य हो सकता है, बस उन्हें किसी महान व्यक्ति का नाम देने की जररूरत थी , उनमें इतने गुण व्याख्यित हो जाते थी कि कभी तो मुझे वो अमिताभ बच्चन की याद दिलाते थे तो कभी महात्मा गाँधी की ।
अब मैं इक्कीस का हो गया था, और स्वाति उन्नीस की। एक दिन स्वाति ने मुझसे कहा , “ मुझसे शादी करोगे ?”
यह सुन कर मेरा रोम रोम रोमांचित हो उठा , परन्तु मैंने गंभीर होते हुए कहा , “ तुम मुझे अपने काबिल पाती हो ?”
“ हाँ ! तुम जिम्मेवारियां निभाना जानते हो ?”
“ और ? “
“ और तुम मेरे पिताजी जैसे दिखते हो !”
यह सुनकर मैं थोड़ा कांप गया , परन्तु मुझे स्वाति इतनी पसंद थी कि मैंने उस भाव को दबा दिया और उससे शादी का निश्यच कर लिया , अब तक मैं अपनी बड़ी तीन बहनों की शादी कर चुका था और जानता था कि बड़ों से इस विषय में कैसे बातें करी जाती हैं ।
हमारी शादी हो गई , परन्तु अब एक नया संघर्ष आरम्भ हो गया, और वो था हमारे समय पर किस मां का अधिकार अधिक था? मैं अपनी माँ को समय देना चाहता था और स्वाति अपनी माँ के पास रहना चाहती थी ।जिंदगी अजीब कच कच हो गई थी , ये दोनों माएँ अपनी ही धुन में थीं , मैं और स्वाति बातें कम और झगड़ने ज्यादा लगे थे । बात तलाक तक आ गई और तभी पता चला स्वाति माँ बनने वाली है, और अब स्वाति जो चाहे वही होने लगा, और पता नहीं कैसे इन दिनों हमारी दोनों माएं करीब आ गई, स्थितयां सम्भलने लगी ।
एक दिन हमारी बेटी चुपचाप अपनी गुड़िया से खेल रही थी और हम मुग्ध हो उसे देख रहे थे , स्वाति ने कहा , “ तुम्हारी बेटी बिलकुल तुम्हारे पर गई है ! “
मैं हस दिया , “ क्यों क्या हुआ ?” स्वाति ने पूछा !
“ कुछ नहीं , यूं ही मुझे कुछ याद आ गया ?”
“ क्या ?”
“ क्या अब भी मैं तुम्हें अपने पिता की तरह दिखता हूँ?“
कुछ पल खामोश रहने के बाद स्वाति ने कहा , “ नहीं , अब तुम मेरी बेटी के पिता हो , और इतना काफी है , अब जिस तरह तुम अपने पिता को अपनेआप में , अपने काम में ढूंढते हो , मैं भी वही करती हूँ , आखिर मां बन गई हूँ !” और वो जोर से अपनी निश्चिन्त हसी हस दी ।
——-शशि महाजन