पिता जी ! प्रणाम
तुम जीत जाओ
मैं हार जाता हूं।
तुम ढूंढों मुझे
मैं छिप जाता हूं।
और नवीन ऊर्जा से
तुम्हें भर देता था/ हूं ।
जीवन एक संघर्ष है
जीत- हार लगा रहता है ।
लेकिन हार के पहले ही,
कदापि नहीं हारना है ।
मंजिल पाए बिना
कभी नहीं रुकना है ।
न प्रतिद्वंदी था,
न प्रतियोगी था ।
तुम सुखी रहो
भविष्य उज्जवल हो ।
बस, मैं यही चाहता था/ हूं ।
जब भी आकाश देखते हो
अशेष आशीष देता था/ हूं:
“पिता जी! प्रणाम ।” सुनता हूं ।
यह रचना अप्रकाशित एवं मौलिक है
घनश्याम पोद्दार
कासिम बाजार, मध्य विद्यालय के सामने,
मुंगेर, बिहार – 811201