पिता की जिम्मेदारी -एक मार्मिक एहसास
दोस्तों नहीं जानता कि मेंने पिता का ओहदा पाकर क्या पाया या क्या खोया, बस जिदंगी के कुछ खट्टे मीठे, तीखे,प्यार भरे एहसासों के तले ये जिदंगी जहाँ चलाती गयी बस चलता चला गया। शुरू हुआ गुदगुदाने का एहसास पहली संतान के होने पर, प्यार, उंमगो की परिकल्पना लिये, उसके पालन पोषण की जिम्मेदारियों के सपने बुनाता, कब कैसे बक्त बढता चला, सपने सच से होने लगे। बच्चों की बढती उम्र के साथ, जिदंगी
की मुश्किलें भी बढी, कभी बीमारियों ने आगाज दी, कभी उसकी चोट ने डर की गूंज दी, कभी उसके दूध, खाना, पीना, कपडे परिवरिश की जुगाड़ ने आवाज दी। अपना जीना कुछ कठिन होता गया, वक्त की करवट से में यारो में खुद बदलने लगा, धीरे-धीरे स्कूल जाने का वक्त हो चला, फीस उस वक्त सहज ही लगी, क्योंकि उमंगें जेब पर भारी पड़ी, वक्त ने रफ्तार कुछ ऐसी पकडी़ कि समय देना कम हो चला। नौकरी पेशे पर दबाव बनता पड़ा, खर्च दिन प्रतिदिन बढते गये, फिर भी खुशियां कम अरमान बहुत रहे।
ज्यों-ज्यों बर्ष बीतते गये, जेब खर्च बढते चले, परवाह न की, क्योंकि अच्छी सोच रखते थे, हर हाल में बच्चों को खुश रखते थे। हर जिद्द बच्चों की हमें सकून देती थी। ढीली जेब बेशक हमें दुख देती थी। बढती उम्र के साथ बच्चे बढ़ने लगे, बढती क्लास अब और भी तनाव बढाने लगी, हर दिन हर पल अपनी ठहरी हुई तनख्वाह सताने लगी, ठहरा पिता, कैसे जिक्र जग जाहिर करता, कुछ सपनो की खातिर अपने को और काम में झोंक दिया, सेहत कुछ बदहाल लगी, चिंता और सताने लगी, अपनी जिंदगी भी बदलने लगी, जेब खर्च और बढा, पर अरमान हमेशा जेब से भारी पड़ा।
अब चुनचुन कर पायी जोड़े जा रहे थे, जिदंगी की तपिश को झेले जा रहे थे, एक वक्त ऐसा आया, खुद को हमेशा खाली पाया, बढती जवानी कब रंगहीन हुई, बालों की सफेदी ने यह एहसास दिलाया, फिर भी अरमानों का ठेला लिए, एक जुनून के साथ पिता का फर्ज निभाते रहे। समय की रफ्तार कुछ ऐसी फिसली, बच्चों की जिद्, सपने, आशाओं, उच्च शिक्षा, प्रतिस्पर्धा, महत्वाकांक्षाओं, को पूरा करते करते, अपना जीना कब भूल गये, चेहरे पर तनाव झलकने लगा, झुर्रियां और गहराने लगी, भीतर ही भीतर कब टूटने लगे, पर अरमानों ने कभी बिखरने न दिया, हर वो इच्छा पूरी करने का सपना लिए अपना जीवन कहीं खो दिया।
दोस्तों ये चिंता, फिक्र, सिर्फ और सिर्फ एक पिता ही महसूस कर सकता है। क्योंकि वही एक ऐसा इंसान है जो बिना जताये, बिना इजहार किये निस्वार्थ भावना से अपने हर बच्चे के लिये प्यार करता है, पर इजहार नहीं करता और न ही अपनी पीड़ा को जगजाहिर कर पाता है।
हर पिता को समर्पित-
न हो तो रोती है जिद्दें,
ख्वाहिशों का ढेर होता है,
पिता है तो हर बच्चे का,
दिल शेर सा होता है।
नसीब बाले होते हैं,
जिनके सिर पर पिता का हाथ होता है,
हर जिद् पूरी हो जाती है,
गर पिता का साथ होता है।
सुनील माहेश्वरी।