पापड
जनवरी का महीना था। कडाके की ठंड। रात के समय सुखिया फुटपाथ पर बैठा जाग रहा था। नींद आती भी तो कैसे। ठंड ने उसका जीना मुहाल कर रखा था। ओढने के लिए एक ही कःबल था जो पर्याप्त गरमी देने में असमर्थ था। किसी तरह रात कटी। सूरज निकला। उसका चेहरा खिल उठा। धूप में अपने को तापते हुए वह प्रकृति को धन्यवाद दे रहा था। तभी कोने में चाय की रेहडी वाले ने पूछा-क्या आज काम पर नही गये सुखिया।’ “काहे का काम बाबू जी काम पर सुबह वो जायेगा जो रात भर गर्म रजाई में सोता हो। गरीब के लिए सरदी की रातें बहुत कष्टदायी होती हैं। ” जवाब दिया उसने।
“क्या बात रात को सोये नही। ”
वह बोला,” ठंड की वजह से रात को नींद नहीं आती। दिन में धूप में सोना पडता है। कुछ दिन तो सरदी के ऐसे ही निकालने पडेंगे। जान है तो जहान है। दोपहर के बाद पेट के लिए कुछ कमाने के लिए एक अंगीठी जलाकर पापड भेनकर बेचता हूँ। जिंदा रहने और पेट भरने के लिए बहुत पापड बेलने पडते है बाबू जी”
चाय वाला बडी हैरानी से सुखिया के चेहरे पर छलके दर्द को साफ देख रहा था।
अशोक छाबडा