पानी वाला इश्क़
गर्मी के दिन थे, सभी सूरज की तपिश से परेशान थे जानवर तो जानवर , इंसानों का भी बुरा हाल था उस दिन गर्मी की वज़ह से कोई भी व्यक्ति अपने घर से बाहर नहीं निकल रहा था।
काॅलेज के शुरुआती दिन थी,तभी उधर से श्रेया काॅलेज से घर की ओर जा रही थी गर्मी से बेहाल पानी की तलाश में रास्ता भटककर घर की वज़ह स्टेडियम वाले रास्ते से गुज़र रही थी लेकिन उसे उधर भी कहीं पानी नहीं मिल पा रहा था। तभी श्रेया की नज़र एक अज़नबी शख़्स पर पड़ी जो हाथों में पानी की एक बोतल थामे हुए स्टेशन से घर की ओर जा रहा था।उसे गुज़रते हुए देख श्रेया की नज़रें उसके हाथ में जकड़ी हुई बोतल पर ठहर गयीं और रुक कर उस अज़नबी की तरफ एकटक देखने लगी।
यह नज़ारा देख अज़नबी की चाल भी थम गई और वह पूछने लगा-
“इस सूनसान राह पर अकेले क्या कर रही हो तुम”
तभी श्रेया ने डरते हुए धीरे से उत्तर दिया- “कुछ नहीं बस यूं ही ”
अज़नबी फिर से ‘कुछ तो है वर्ना इन राहों से गुज़रता कौन है’
श्रेया-‘जी नहीं पानी की तलाश थी, गला सूख रहा है’
श्रेया के शब्द सुनते ही अज़नबी बोला ‘मैडम आप मज़ाक तो नहीं कर रही हैं’
जी नहीं,वैसे भी मैं आपको जानती तक नहीं, क्यों आपको मज़ाक लगा?’
जी नहीं, अगर आपको कोई आपत्ति न हो तो आप इस बोतल का पानी भी पी सकती हैं ।उस अज़नबी की यह बात सुनकर श्रेया चौंक गई और वह ‘अगर इस पानी में कुछ हुआ तो?’ जैसे अनेक सबाल मन में गढ़ने लगी।
यह देख उस अज़नबी ने फिर कहा ‘लो मैडम, पानी’
और यह सुनकर श्रेया ने हाथ बढ़ाकर पानी की बोतल हाथ में ऐसे थाम ली जैसे उसकी कोई खोई हुई पुरानी वस्तु थामती भी क्यों न तलाश थी पानी की थी वो पूरी हो गई।
पानी पीने के बाद श्रेया ने अज़नबी से पूँछा ‘यह रास्ता सीधा माॅल टाऊन जा रहा है न’ तुरंत उत्तर आया ‘जी नहीं, कहां जायेंगी,आप! रास्ता भटक गई हैं आप, यह रोड़ माॅल टाऊन वाला नहीं बल्कि स्टेडियम रोड़ है’
“कहां जाना है आपको?”
श्रेया ने डरते हुए उत्तर दिया-‘माॅल टाऊन लगी नम्बर-2 तक’
अज़नबी ने फिर कहा ‘अरे मैडम!,मैं भी वहीं रहता हूँ, शर्मा अंकल जी के यहाँ,मुरादाबाद से हैं हम!’
किसी अंजान पर ऐसे भी तो भरोसा नहीं किया जाता तभी श्रेया बोली ‘मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा है’
उसने तुरन्त उत्तर दिया “आप डाॅ.बीनू मिश्रा को जानती हैं, उनका छोटा बेटा हूँ,कौशिक”
अरे! वो बीनू मैडम,जो हमारे करीबी अस्पताल में थीं। कौशिक ने उत्तर दिया “हाँ वही” इस तरह दोनों आपस में बातें करते हुए घर की ओर बढ़ने लगे और इस तरह दोनों आपस में बातें करते हुए अपने-अपने घर चले गए ।
अब दूसरे दिन श्रेया अपने काॅलेज जा रही थी तभी रास्ते में उसे कौशिक दिखाई दिया और काॅलेज को लेट हो रही श्रेया ने उसे एक नज़र देखकर अनदेखा कर दिया लेकिन जब काॅलेज से वापस आ रही थी तो कौशिक रास्ते में मिल गया।
श्रेया-“हाय!कैसे हो कौशिक?”
कौशिक ने उत्तर दिया -“मैं ठीक हूँ और आप”
श्रेया-“मैं भी, पर आप आ कहां से रहे हैं?”
कौशिक-“कुछ नहीं, बस मम्मी ने कुछ सामान मंगाया था वो लाया हूँ”
इस तरह दोनों आपस में बातें करते हुए अपने-अपने घर आ गए। अब हर रोज़ कौशिक श्रेया को रास्ते में मिल जाता और बातें करते हुए घर आ जाते। धीरे-धीरे बातों का सिलसिला बढ़ता गया और दोनों एक-दूसरे के इतने पास हो गए कि एक-दूसरे को न देखें तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता था।
जैसे-जैसे दिन गुज़रते गए वैसे-वैसे श्रेया और कौशिक इतने करीबी दोस्त हो गए कि कौशिक हर रोज़ दोपहर के समय श्रेया का इंतज़ार करता था और श्रेया भी कौशिक की राह तकती।अचानक एक दिन कौशिक को शहर से बाहर जाना पड़ा तो वह दो दिन तक वापस नहीं आया पर श्रेया हर रोज़ की तरह उसे इधर-उधर निहार कर निराशा भरे मन से घर आ जाती है।जब तीसरे दिन श्रेया अपने काॅलेज जा रही होती है और रास्ते में पहुँचकर उसे पता चला कि आज उसके काॅलेज का किसी कारणवश अवकाश है तो वह समय से घर आकर कौशिक के घर जाती है।
घर पर पहुँचने के पश्चात् जैसे ही श्रेया ने दरवाज़े की घण्टी बाजयी तभी अन्दर से एक आवाज़ गूंज़ी “अभी रुको,आते हैं” और फिर बाद में दरवाज़ा खुला, उस समय डाॅ.बीनू मिश्रा घर पर अकेले थीं, तभी वो श्रेया की ओर देखकर बोली, “आओ बेटा! बैठो”
मैंने आपको पहचाना नहीं, कहां रहती हो? जैसे अनेक प्रश्न उछाले। तभी श्रेया ने ज़बाव दिया-“मैं श्रेया,विनय तिवारी जी की इकलौती पुत्री”
अरे!तुम विनय तिवारी जी की बेटी हो।
हाँ, आंटी।
घर सब ठीक तो हैं, कैसे आना हुआ?
हाँ, घर तो सब ठीक हैं,यहां से गुज़र रही थी सोचा आप से मिल लूं।
अच्छा किया बेटा, आ जाया करो जब कभी तुम्हें समय मिले।
ठीक है आंटी,आप यहां अकेले रहती हैं इस शहर में।
हां बेटी, पर मेरा छोटा बेटा कौशिक रहता है मेरे साथ, पर इस समय वो मेरे टांसर्फर (स्थानांतरण) के संबंध में आवश्यक काम से बाहर गया है,क्योंकि मेरा स्थानांतरण मेरठ में हो गया है,वैसे कौशिक आज शाम तक आ जायेगा।
श्रेया स्थानांतरण का नाम सुनकर चौंक गई पर करती भी क्या? जैसे ही अगले दिन उदास मन से काॅलेज जा रही थी और लौटते वक़्त कौशिक रास्ते में मिल गया और पूँछा -“कहां थे इतने दिन तक कौशिक?”
श्रेया, वो मम्मी का स्थानांतरण हो गया है इस कारण मुझे दो दिन के लिए लखनऊ जाना पड़ा अब मम्मी की पोस्टिंग मेरठ हो गई है इसलिए अब हमें इस शहर को छोड़ना होगा।
“श्रेया तुम अपना ख़्याल रखना!”