पाती प्रभु को
विसर्जन, विसर्जन, विसर्जन
याद है मेरा ये उद्घोष
और थके हारे मन का
स्वयं का अस्तित्व मिटा
सब तुम पर विसर्जित कर देना ।
मुझे भान है,
यह विसर्जन तुम पर क्रोध भी था
कि मेरे मन का नहीं तो
तुम्हारे दिए जीवन की भी अवहेलना ।
पर मेरे इस विसर्जन को तुमने
प्रसाद सा स्वीकार लिया।
जैसे ही मैंने सब कुछ छोड़ा
थाम लिया तुमने सब अपने हाथ में ।
फिर जब भी मैं भटकी
तुमने रास्ता दिखाया
मुझे जी भर रोने दिया अपनी गोद में
फिर प्यार से सहलाया और समझाया
निःशब्द और अभिभूत हूँ
तुम्हारी इस कृपालुता पर ।
बस ये अश्रुपूरित नेत्र और
ये प्रेम विह्वल कृतार्थ हृदय है
तुम्हारे अभिषेक को
और अब प्रसाद में
समर्पण, समर्पण, समर्पण ।