पहाड़ सा स्वपन
आज मैं लौटना चाहता हूँ।
अपने सपने के पहाड़ से नीचे।
किन्तु, खाई वही है और वहीं है।
डर लगता है-
भूख वहीं टिका हुआ देखता है,आसमान।
दुर्भिक्ष हर वर्ष ताक-झांक करता है।
मैं साठ साल पूर्व का बच्चा
उस विद्या भवन के कोने में अंदेशे से
डरा हुआ बहुत असहज हूँ।
अगर दुर्भिक्ष,ठहर जाए तो!
महीने के
पंद्रह सेर चावल,एक सेर दाल और दस रुपये बंद।
मैं सपनों के पहाड़ से गिर जाऊंगा।
मैं बहुत विचलित हुआ करता था।
वह खाई आज भी है,वहीं है।
उस खाई से मेरा यह पहाड़ अच्छा है
कि
मेरे इस पहाड़ से वह खाई?
पता नहीं!
डर हमेशा है।
आया तो बहुत बार था छुट्टियों में।
दुर्भिक्ष देखा था उसी गाँव में।
वहीं भूख से रोया था।
चावल के माँड़ को सहेजते देखा था
कल के लिए ।
चाहता था मैं दशहरे के मेले में जाना।
चाहता था कोई रख दे मेरे हाथ पर एक आना।
मेरे सिर पर नहीं था कोई हाथ।
रूआँसा हुआ मेरा मन निरीह आँख।
यह दु:ख था मेरे बचपन से लगकर खड़ा हुआ।
अब जान पाया हूँ। तब माना जीने की प्रकृति।
ज्ञात नहीं था ऐसी होती है दु:ख की प्रतिकृति।
इसने मुझे अरण्य-रोदन से बचा लिया।
सहज जीना परिस्थितियों के साथ इसने सिखा दिया।
अभाव तबतक नहीं है अभाव,
जबतक इसकी वैश्विक परिभाषा नहीं जानते।
हाँ,आसपास की खुशी खलती है।
इच्छा अवश्य मचलती है।
और हीन होने की भावना।
दीन होने की स्वयं की प्रताड़णा।
सपने अब भी वहीं हैं
संदर्भ बदल गए हैं।
धूर्त न हो पाने के कारण
निरीहता में पुन: ढल गए हैं।
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27/5/22