पहाड़ों मा पलायन
अपणी चौक डिंड्याली छोड़ी नौखम्बा तिवारी छोड़ी,
सभी लोगोंन एक ही साथ मां अपणूं गों गुठ्यार छोड़ी।
उभी बखत थौ सभी लोग जब,
डोखरी पोक्ण्यों ज्यादा थैई।
रोपणी, मण्डवार्ती गोंडण मा ही,
ख़ुशी ख़ुशी जीवन जींदा थैई।।
ग्वैर छोरा भी गौरु बाखर्यों मा,
बणू पाख्यों मा नाचदा थैन।
भांति – भांति का खेल खेलीक,
वख खाणु लाणु भी करदा थैंन।।
कभी काखडी मूगंरी कि चोरी करीकी,
गाली भी खूब ही खांदा थैन।
पर गारा, चुली भांडी,खेल खेलीक,
मस्त भी खुब ही रांदा थैन।।
गौं की बेटी ब्वारी धाण काज मा,
पोग्णयों मा गीतू लांदी थैई।
मोल मोलार्ती घास कटार्ती मा,
हैंसी हैंसी जीवन जींदी थैई ।।
गौं का बैख भी कौ कारज मा,
सबसी अगनै रैंदा थैन।
लकड़ी फड़ै मा बेदी चिणैंमा,
पाणी सरै मा लग्या रैंदा थैन।।
गौं का दाना सयाणा भी,
छज्जा मोर्यों मा बैठ्यां रैंदा थैन।
बीड़ी हुक़्क़ा का साथ मजी,
नई पीढ़ी तैं बतोंदा रैंदा थैन।।
वै वक्त मा लड़ै भीड़ै भी
हल्का मन सी ही होंदी थैई।
फिर कौ कारज मा सुख मा दुख मा,
सब एकसाथ ह्वैजांदा थैई।।
बार त्योहारों मा रांसू तांदी,
मूल्कों मा लगदी रैंदी थैन।
रामलीला अर पांडौं नाच भी,
रातों रातों भर होंदू रैणू थैन।।
खुजांणी किलै यनू बखत आई,
पैसोंन सबकू मन लूभाई।
पढणूक क्वी नौकरी का बाना,
सभून अपणूं गौं छोड़ी द्यायी ।।
अब सब दाना सयाणा भी,
नौजवान अर छोटा बाला भी।
गौं जाणक सभी तरसदा छन,
यकुली यकुली सभी रौंदा छन।।
यू हम लोगों की भी गलती नी,
मजबूरी भी यनी ही बणी गैन ।
पर फिर भी अपणा गौं न भूल्यान,
बार त्योहारों मा त गौं ही जान।।
अब गौं की याद त समलौंण्या वैगी,
गौं त बस अब नौं कू रैगी।
पर फिर भी हे पहाड़ों का लोगों,
अपणी बोली भाषा संस्कृति नी छोडणू ।
आपणी बोली भाषा संस्कृति नी छोडणू।।
अपणी बोली भाषा संस्कृति नी छोडणू।।
दुर्गेश भट्ट