पहले वो दीवार पर नक़्शा लगाए – संदीप ठाकुर
पहले वो दीवार पर नक़्शा लगाए
बा’द में रस्तों का अंदाज़ा लगाए
जाने सूरज ने नदी से क्या कहा है
बह रही है धूप का चश्मा लगाए
चाँद की आँखें बड़ी दिखने लगेंगी
रात गर सुर्मा ज़रा गहरा लगाए
मैं समुंदर के सफ़र से लौट आऊँ
वो अगर आवाज़ दोबारा लगाए
शाम का दिल कल ही टूटा आज फिर क्यों
आ गई उम्मीद का चेहरा लगाए
जंगलों में मील के पत्थर नहीं हैं
दूरियों का कौन अंदाज़ा लगाए
झाँकती है काँच से फिर धूप घर में
कह दो खिड़की से कोई पर्दा लगाए
चाँद उतरे झील में उस की बला से
चाँदनी क्यों रात-भर पहरा लगाए
मंज़िलें पहले ही सारी हार बैठा
दाँव पर रस्ता भला अब क्या लगाए
संदीप ठाकुर
Sandeep Thakur