पहले जैसी कहाँ बात रही
मर्यादा का ना नाम रहा
संस्कारों का ना वक्त रहा है
स्पष्ट शब्दों की वाणी में
मधुरता करना प्रवेश रहा
कैसे चलन में हम जी रहे हैं
समाज का ना डर रहा।
कितनी फुहड़ता आ गई है
देखो अब इन गानों में
शालीनता जैसे खो गई है
सबके चेहरों से।
अब छोटे- बड़े की
शर्म -ओ हया ना रही
प्रथा जैसे बन गई
जाम से जाम टकराने की
कौन बहन कौन भाभी
भेद न अब कोई रहा।
पहले प्राकृतिक वातावरण का
होता भरपूर प्रयोग था
तन ढककर मन खिलखिलाकर
होता एक दूजे का संवाद था
अब कहाँ पहले जैसी बात रही।
हरमिंदर कौर ,
अमरोहा, (उत्तर प्रदेश)