पहचान
माता पिता को छोड़कर
और त्यागकर अपना शहर
छूटी हुई स्मृतियों को
आँचल के कोने बाँधकर
रोती हुई आँखों से
उनको,पीछे मुड़कर, ताककर
आगे बढ़ी,अनजान
लेकिन आत्मवत ही जानकर
तुमने किया पाणिग्रहण
मैंने किया सबकुछ ग्रहण
क्या हर्ष क्या और शोक क्या
वो पुरूष मेरा गर्व था
जिसके लिए नारी का केवल
पुरूष हीं बस धर्म था
तानों से सज्जित गेह था
हर बात में संदेह था
उन मर्मभेदी शब्दों में
बोलो कहीं, क्या स्नेह था
बस हो यहीं पर अंत हो
मेरा भी कोई बसंत हो,
अधिकारिणी हूँ,मैं कोई चेरी नहीं
इस संसृति में पहचान है मेरी कोई।