पसंद बच्चों की
नतीजे परीक्षा के
12 वीं की परीक्षा के नतीजे आ रहे थे , समाचारपत्र में 98 – 99 % तक अंक लाने वाले छात्र- छात्राओं के फोटो छप रहे थे उनके घर वाले बच्चों को मिठाई खिला रहे थे ।
सुबोध सोच रहा था ऐसे छात्र तो कुछ ही हैं, जिनका नाम हो रहा है बाकी तो अंधेरी गली में गुम हो रहे है । उनमें सुबोध भी एक है , उसके पिता शंकरलाल खुशी नहीं मना रहे है क्यो कि सुबोध को मात्र 45% ही अंक मिले थे । शंकरलाल चाहते थे यह भी 95-99% तक अंक ला कर किसी अच्छे इन्जीनियरिंग कालेज में दाखिला ले कर उनका और परिवार का नाम रोशन करता ।
सुबोध इस सब के बावजूद खुश था । उसे अपनी सीमाएं मालूम थी वह होशियार तो था परन्तु उसका रूझान कुछ अलग था । शंकरलाल जी ने कई बार सुबोध को अपनी अपेक्षाओ से अवगत भी कराया था ।
शंकरलाल जी से मतभेद होने के बाद उन्होंने उसे आलसी, निकम्मा कह कर उसकी तरफ ध्यान देना बंद कर दिया ।
सुबोध को टेक्नीकल काम पसंद था और उसने पढ़ाई के साथ ही मोबाइल ठीक करने की ट्रेनिंग ले ली थी । शुरू में सुबोध ने दोस्तों से कुछ पैसे उधार ले कर मोबाइल रिपेयरिंग की छोटी सी दुकान शुरू की ।
उसकी मेहनत और ईमानदारी से दुकान चल निकली । इसके बाद सुबोध ने बैंक से ॠण ले कर अपना करोबार बढ़ा लिया और आज शहर में सुबोध की दुकान बड़ी प्रतिष्ठित हो गयी है और उसके यहाँ 7-8 दूसरे लोग भी काम कर रहे हैं।
अब शंकरलाल जी को अपनी गलति का अहसास हो रहा था । उनके भी विचार थे कि बच्चों पर अपनी इच्छा लादने की बजाए उनकी पसंद और क्षमता को भी देखना चाहिए ।
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल