” पलक चढ़ी आशाओं में ” !!
जंजीरों से हाथ बंधे हैं ,
पड़ी बेड़ियाँ पाँवों में !
पीड़ा झेल रहे बरसों से ,
खुशबू नहीं हवाओं में !!
भेदभाव बचपन से पाया ,
नज़रें इसे बयां करती !
सहने की बस सीख मिली है ,
प्रीत यहाँ आहें भरती !
शहरी शिक्षा , सोच है बदली ,
फिज़ा न बदली गावों में !!
जहाँ पनपती घोर गरीबी ,
और विचार न जागे हैं !
भाग्य जगाते लड़के हैं बस ,
हम तो बड़े अभागे हैं !
दुख की बदली यहाँ न छंटती ,
पलक चढ़ी आशाओं में !!
उम्मीदों की डोर थामकर ,
बैठे हैं आँखें मूंदे !
घोर तपन है लगी लगन है ,
कब बरसें शीतल बूँदें !
जाने कब जीवन महकेगा ,
सुख की गहरी छांवों में !!
नारी जीवन कठिन तपस्या ,
मर मर जीना पड़ता है !
रब देता है राह कंटीली ,
देह सुकोमल घड़ता है !
दूर दूर तक छोर दिखे ना ,
उम्मीदों की नावों में !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )