पर्यावरण
जल जमीन जंगल रहे, पर्यावरण सुधार|
होते जंगल नाश जब,श्वासें गिने उधार |(1)
वसुधा जल से हो रहित,झेले गर्मी मार |
धरती की छाती फटी,मानवता बीमार |(2)
पीपल बरगद आम है,हैं अरण्य की शान |
मानो खग मृग हैं सभी,जंगल का अभिमान|(3)
खेत और खलिहान है, बंजर भूमि समान |
खेती दूभर हो गई,कर विकास का मान|(4)
तपे दुपहरी जेठ सम,व्याकुल प्राणाधार |
रहे तड़पते जल बिना, जल जीवन आधार|(5)
तरसे खेती जल बिना, अनावृष्टि का काल |
ऋण माफी की आस में, बीत गया यह साल |(6)
निर्जन पथ के पथिक अब,आज खोजते छांव |
चूर -चूर थक कर हुए, दूर बहुत है गांव|(7)
डूबे घर आंगन सभी, डूब गए सब गांव|
कच्चे घर गिरते रहे,ठौर रही ना ठाव |(8)
तटबंधिय कटाव यहाँ,रोके पादप रोप.
भू स्खलन रोके यहां, लगते जो आरोप|(9)
रोपे वृक्षों को सभी,करें अभी शुभ कार्य |
आश्वासन जब दे दिया, उत्तर दायी आर्य |(10)
संरक्षित जलवायु हो,भूमि जल को धार |
हरा भरा मरुस्थल रहे, नदियों का उद्धार|(11)
धूम्र प्रदूषण यदि करें स्वास्थ्य सभी का नष्ट.|
शुद्ध वायु सबका हरे, समय-समय पर कष्ट |(12)
गिनकर श्वास से ले रही, जंगल और जमीन|
जंगल संरक्षित नहीं,मानव हृदय विहीन |(13)
दोहा सजल
अंतर्मन आहत हुआ ,किससे कहें विचार ।
सौभाग्य दुर्भाग्य मध्य विचलित है संसार।
वायु प्रदूषण से हुआ ,रोगी यह जग मान।
कब आए सौभाग्य से, बारिश की बौछार ।
गैस चैंबर सम बना दिल्ली का आकाश।
अंतर्मन सब के दुखी ,कैसा ये व्यापार।
धूम्र प्रदूषण है बढ़ा, लाल हुआ आकाश।
खेती बान विधान दे ,दोषी सब संसार।
वायु प्रदूषित जग हुआ, बढा गगन का ताप।
जल प्रदूषण हो रहा, मौन हुआ अखबार।
दोहा मुक्तक
सागर तीरे बैठ कर,करें निराशा दूर।
कलकल नदिया कर रही,मन की आशा पूर।
स्वस्थ रहे तनमन सदा,करें प्रकृति अनूभूति।
प्रातः नित अभ्यास कर,सदा रहेंगे सूर।
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव,प्रेम