पर्यावरण
है भू क्षरण
दूषित आवरण
पर्यावरण
धानी चूनरी
ओढ़ती थी धरती
पहले कभी
अब बंजर
रहती बिलखती
रोती धरती
मूर्ख मानव
भौतिकता में लीन
सोच मलीन
काट रहा है
हरे भरे जंगल
चाहे मङ्गल
कैसे हो भला
घोंट रहा है गला
मानवता का
प्राण वायु ही
जब बचेगी नहीं
तब क्या होगा
मर जायेगा
नहीं बच पायेगा
पछतायेगा
– हरवंश श्रीवास्तव
बाँदा (उ0प्र0)