पर्दा खोल रहा है
अब सच्चाई और झूठ के पर्दे को यह खोल रहा है।
दर्पण नाजुक सा है लेकिन सच्चाई को बोल रहा है।।
पिता-पुत्र-माता का रिश्ता कागज तक सीमित हो बैठा।
बहन-भाई-भाई का रिश्ता मर्यादा को है खो बैठा।
पति-पत्नी भी कहीं-कहीं जरूरत पर साथ निभाते हैं।
गुरु शिष्य को भला कहाँ पहले सा पाठ पढ़ाते हैं।
प्रेम भलाई त्याग दया में शत-प्रतिशत का झोल रहा है।।
दर्पण नाजुक सा है लेकिन सच्चाई को बोल रहा है।।
हम इतने आजाद हुए कि निजी सभ्यता भूल गए।
और तरक्की इतनी कर ली, हम मानवता भूल गए।
स्वार्थसिद्धि के हेतु हम सब दाँव पेंच आजमाते हैं।
ऊंचाई को छूने खातिर नीचे तक गिर जाते हैं।
सत्कर्मों और सद्भावों का कहाँ कोई अब मोल रहा है।।
दर्पण नाजुक सा है लेकिन सच्चाई को बोल रहा है।।
दाड़ी में तिनका है सबके, सब के सब मौसेरे भाई।
सभा-सदन में पक्ष-विपक्षी एक है कुआँ दूजा खाई।
दुखियारी जनता तो अब भी बेचारी की बेचारी है।
सुने नहीं कोई भी दुखड़ा, जनता की ये लाचारी है।
प्रश्नों का हल नहीं मिला है उत्तर भी तो गोल रहा है।
दर्पण नाजुक सा है लेकिन सच्चाई को बोल रहा है।।
शिक्षा सबसे ज्यादा बिगड़ी, और स्वास्थ्य की सेवाएं।
स्कूल कालेज महंगे सारे, महंगी मिलती सभी दवाएं।
दवा जरूरत की वस्तु पर किसने है संज्ञान लिया।
कीमत निर्धारण का किसने कैसे क्या पैमान लिया।
अंधा है कानून जगत का सच्चा-झूठा तोल रहा है।।
दर्पण नाजुक सा है लेकिन सच्चाई को बोल रहा है।।
संतोष बरमैया जय