परिस्थितियों से समझौता
)))) बिवसता से समझौता*((((*
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कितना बेबस था चेतन ,उसकी विवसता देख मैं भावविह्वल हुआ जा रहा था वह कह रहा था ; यार अब बहुत हो चुका जितना मेरे भाग्य में था मुझे मिला आगे हरी इच्छा। अब मैं भाईयों पर बोझ नहीं बनुंगा खुद के पैरों पर खड़ा होने के लिए जो भी सम्भव हो करूँगा। आज उसके चेहरे पर कितनी शान्ति थी हर समय खिला -खिला सा रहने वाला चेहरा आज जैसे गम्भीरता की मूरत बन चूका था।
इसी वर्ष तो बारवीं साईंस से वह विद्यालय में टाँप कीया था ।
आखिरकार पढाई छोड़ दी उसने , उसके दोनों भाई भी नहीं चाहते थे कि वो आगे पढे, वे दोनों उसके पठन पाठन का भार उठाने में खुद को अक्षम समझ रहे थे।
एक उदित होता सूर्य आज विषम परिस्थिति रूपी बादल के थपेडों से समय से पहले ही अस्ताचलगामी हो चला था। मैं भी क्या करता किसी के लिए दुखी होना अलग बात है किन्तु उसे उसकी मंजिल तक पहुंचाने के लिए आपका सामर्थ्यवान होना बहुत ही जरूरी होता है जो उस समय मैं नहीं था अतः मैने भी हामी में सर हीलाकर स्वीकृति दे दी , दोस्त तुम्हें जो बेहतर प्रतित हो करो हाँ हम जिस परिस्थिति में जिस भी तरह तुम्हारे काम आ सके बीना संकोच बताना ।
हुआ यूं था मैं और चेतन हाईस्कूल में मिले वह बड़ा ही कुशाग्रबुद्धि था , जैसे प्रत्येक विषय में पारांगत हो। जितना वह पढने में तेज था उतना ही नटखट भी था किन्तु सभी क्लासमेट उसे बहुत चाहते थे जरुरत के अनुसार वह सब की मदद करता, समय समय पर खिचाई भी करता लेकिन खिचाई केवल मनोरंजन के लिए और इन सभी कार्यों में मैं उसका सहभागी था आपस में हम दोनों की खुब बनती।
यहाँ तक की वह अपने घर से कही ज्यादा मेरे किराए के कमरे पर रहता। मेरे साथ खाना बनाता।
कभी कभी मैं भी चेतन के घर जाता ।
चेतन के पिता एक प्राईवेट कम्पनी में मुलाजिम थे बड़े ही अच्छे स्वभाव के इंसान थे हममे और चेतन में कभी कोई फर्क नहीं करते इनके दो बेटे एक बेटी चेतन के अलावा और भी थे उन सबों की शादीयाँ हो चुकी थी तीनो बाल बच्चेदार थे तथा दोनों भाई खुद का व्यवसाय करते थे दोनों की आमदनी भी अच्छी खासी थी इधर चेतन पढ रहा था वह प्रशासनिक परीक्षा पास कर अपने पिता का सपना पुरा करना चाहता था जो उसके पिता परिवारिक विषमताओं के कारण खुद नहीं कर पाये थे।
इंसान परिस्थितियों का गुलाम होता है हम जो सोचते है वह पुरा ही हो जरूरी नहीं कभी कभी कोई एक घटना सम्पूर्ण जिवन की दशा और दिशा दोनो ही बदल कर रख देती है और हम कुछ नहीं कर पाते लाचार, असहाय अवाक जो कुछ भी घटित हो रहा उसे देखने को मजबूर।
एक रोड़ एक्सिडेंट में चेतन के पिताजी जी स्वर्ग सिधार गये इस घटना को उसकी माँ जिनके समक्ष यह घटित हुआ था सह न सकी और अपना मान्सिक संतुलन खो बैठीं ।
कुछ दिन तक बहु बेटों ने उन्हें झेला जब झेल ना सके तो चेतन के लाख बिरोध के बाद भी पागलखाने छोड़ आये।
एक सम्भ्रांत सुखी समपन्न परिवार देखते ही देखते बीखर गया काल का ग्रास बन गया कुछ दिन दोनों बड़े बेटे एक साथ रहे फिर वे भी अलग हो गये, चेतन बड़े भाई के हिस्से आया लेकिन उन्होंने अपनी मजबूरी बतलाकर उसे अहम निर्णय लेने को कहा।
चेतन अब मैं तुम्हारे पढाई का खर्च वहन नहीं कर सकता मेरा काम भी घाटे में चल रहा है अतः पठाई छोड़ो और या तो मेरे काम में हाथ बटाओ या फिर खुद कोई काम ढूंढो।
चेतन ने कहा भी भैया यह पापा की इच्छा थी कि मै पढ लिख कर प्रशासनिक परीक्षा पास कर कोइ अधिकारी बनूं क्या उनके मरते हीं उनकी इच्छाओं का गला घोंट दूं।
भैया बोले बाबू भावनाओं में बहने से बेहतर होगा धरातल पर आ जाओ परिस्थिति को समझो वे गये उनकी इच्छाये भी उनके साथ ही चिता की अग्नि में जल कर भस्म हो गई।
लाख समझाने के बाद भी जब भैया नहीं माने तब चेतन धुमिल होचले दीपक की भांती मेरे पास आया ।
चेहरा निस्तेज हो चला था भावनाओं का रूदन-क्रन्दन सब थम सा गया था, शुन्य के सागर में गोता लगाता मन शायद डुब चूका था अब न भावनाओं का कोई ज्वार भाट और ना ही ज्वालामुखी ही था जो फट पड़े । जैसे सुनामी के बाद सागर की लहरें शान्त पड जाती है चेतन भी वैसे ही चेतनाविहीन एकदम शान्त हो गया था।
मुझसे स्वीकृति पाकर वह इस शहर को छोड़ किसी और शहर को निकल पड़ा किसी और आशा का सृजन करने और मै स्तब्ध सा खड़ा उसे जाते देखता रहा…….???????
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
दिल्ली
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