परिवार
परिवार
जब अन्विता स्कूल से वापिस आई तो उसने देखा, माँ अपने कमरे में बिस्तर पर पड़ी रो रही है ।
“ क्या हुआ मम्मी ? “ अन्विता ने माथे पर हाथ रखते हुए कहा ।
“ कुछ नहीं । “ मम्मी ने हाथ झटकते हुए कहा । “ चल पहले खाना खा ले।” माँ ने उठते हुए कहा ।
“ दादी ने फिर कुछ कहा क्या? “ अन्विता ने हार न मानते हुए कहा ।
“ चल , उनका कहना क्या और न कहना क्या , तूं क्यों फ़िक्र करती है । “ माँ आंसू पोंछकर मुस्करा दी ।
अन्विता के भाई भी स्कूल से आ गए। आते ही खाना खाना करने लगे , माँ उनका यह हाल देखकर मुस्करा दी , चाची भी आ गई, और माँ की मदद करने लगी। घर शोरोगुल से गूंज उठा ।
पहली रोटी आई तो बड़े भाई सात्विक ने कहा, “ अन्विता पहले तूं ले ले , हम खाना शुरू करेंगे तो तेरा नंबर नहीं आयेगा ।
दादी भी भीतर से आ गई, बच्चे दादी को दिन भर की बातें बताते जाते और हंसते जाते ।
अन्विता माँ पापा के कमरे में अलग बिस्तर लगाकर सोती थी। उस रात वह बिस्तर में थी , पर अभी सोईं नहीं थी। उसने सुना , पापा कह रहे थे ,” तेरा मूड ठीक है न ? “
मम्मी ने जवाब नहीं दिया ।
“ अरे बता न, दोपहर की माँ की बात के लिए मैं माफ़ी माँग लेता हूँ । “
“ बस यही करना तुम, माँ से कभी यह मत कहना कि इस तरह उनको मेरा अपमान नहीं करना चाहिए ।”
“ कहना चाहता हूँ, पर तुम्हें पता है, पिताजी के जाने के बाद से वह अपना विधवा होने का कार्ड बहुत बुखूबी खेलती है। उनके रोने धोने से, घर छोड़ने की धमकी से , मैं घबरा जाता हूँ । “
“ She is too smart for you . “ माँ ने ग़ुस्से में कहा और दुबक कर सो गई ।
पापा और चाचा दो भाई हैं , और दो बहनें है, जो प्रायः हर रविवार को परिवार सहित दोपहर के खाने पर निमंत्रित होती हैं । तब राजेरी के उनके पुश्तैनी मकान में इतनी चहल पहल , इतने ठहाके होते हैं कि, ख़ुशी हर कोने में होती है ।
पापा और चाचा की ठीकठाक नौकरियाँ हैं, दोनों के दो दो बच्चे है, पर सबकी बहन एक ही है, अन्विता ।
उस दिन अन्विता के स्कूल के चेयरमैन की अचानक मृत्यु हो गई थी, और स्कूल की छुट्टी हो गई थी , अन्विता समय से पहले घर आ गई थी । उसने बाहर से सुना, दादी चिल्ला रही थी, चाची उदास बैठी थी, माँ रो रही थी, उस दिन न जाने क्यों पापा और चाचा भी घर पर थे , शायद झगड़ा इतना गहरा गया था कि उनको आफ़िस से बुला लिया गया था । जैसे ही दादी की नज़र अन्विता पर पड़ी दादी एक पल के लिए रूक गई, परन्तु अगले ही पल फिर शुरू हो गई ।
पापा उसके पास कोने में खिसक आए, “ तूं इतनी जल्दी कैसे आ गई ?”
उसने बैग रखते हुए बताया तो दादी एक पल के लिए फिर रूक गई ।
अन्विता देख रही थी कि , दादी माँ का अपमान किये जा रही है, माँ रो रही है, और पापा चुपचाप खड़े हैं। ग़ुस्से से वह थरथराने लगी । दादी से उसे बहुत प्यार था, पर उसका मन कर रहा था, यदि माँ उसका सामना नहीं कर सकती , तो वह जाकर लड़े । इस अपमान की वजह एक ही थी , माँ का मायका गरीब था, और तीज त्योहार पर सामान नहीं आता था , जबकि चाची का मायका खुशहाल था और गाहे-बगाहे वहाँ से उपहार आ जाते थे ।
रात को अन्विता ने सुना , पापा फिर माँ से वही कह रहे थे , “ परिवार को बांधे रखना है तो बड़ा दिल रखना होगा, माँ प्यार भी सबसे ज़्यादा तुम्हें करती है, पिछली बार बीमार पड़ी तो याद नहीं कि कैसे हस्पताल में सिर्फ़ तुम्हारे साथ रहना चाहती थी ? “
“ हुं ,” माँ ने ग़ुस्से से कहा , “ गरीब से काम करवाने के तरीक़े हैं ।”
अन्विता का मन अपनी माँ के लिए रो रहा था, वह सोच रही थी , पापा जो माँ को इतना प्यार करते हैं , दादी को कुछ कहते क्यों नहीं?
रविवार था । पापा ने अन्विता से कहा, “ चल मेरे साथ कनाट प्लेस , थोड़ा घूम के आते हैं । पापा ने उसे उसके मनपसंद ज़्यांट पर पिजा खिलाया, आइसक्रीम खिलाई, नए जूते दिलाये , फिर जौहरी की दुकान पर पहुँच गए , वहाँ अन्विता को एक मोतियों का हार दिखाते हुए कहा, “ यह मुझे तेरी माँ के लिए ख़रीदना है , फिर साड़ी की दुकान पर गए बहुत चुनचुनाकर, माँ के लिए एक खूबसूरत साड़ी ख़रीदी , अन्विता ने देखा यह सब सामान ख़रीदते हुए उसके पिता के चेहरे पर अजीब सी तरलता आ गई है , उसे लग रहा था , पापा मम्मी को बहुत प्यार करते हैं ।एक अजब सी मुस्कान थी उनके चेहरे पर ।
गाड़ी में वापिस रास्ते पर अन्विता ने कहा, “ क्या बात हैं पापा बहुत ख़ुश हो आज ?”
“ मैं तो हमेशा ख़ुश रहता हूँ । “
“ नहीं आज कुछ तो ख़ास है । “
कुछ पल मुस्कुराने के बाद पापा ने कहा , “ है न , आज के दिन मैंने तेरी माँ को पहली बार देखा था , “ और फिर बड़ी अदा से कहा ,” और बस तब से देख ही रहा हूँ। “
सुनकर अन्विता का रोम रोम खिल उठा । फिर थोड़ी देर बाद उसने गंभीर होते हुए पापा से कहा , “ एक बात पूछूँ पापा, आप बुरा तो नहीं मानेंगे ? “
“ नहीं , पूछ । “ पापा ने अपनी मुस्कराती आँखों से उसकी ओर मुड़कर कहा ।
“ पापा, “ अन्विता ने कहा और रूक गई ।
“ अरे बोल न, ऐसा क्या है , जो इतना हिचकिचा रही है। “
“ मैं यह कह रही थी, “ उसने फिर से गंभीरता से कहा, “ आप यदि माँ से इतना प्यार करते हो तो फिर दादी को उनका इतना अपमान कैसे करने देते हो ?”
पापा की आँखों की मुस्कराहट ग़ायब हो गई, उनका चेहरा उदास हो गया ।
अन्विता सहम गई, “ आय एम सारी पापा, यदि मैंने कुछ ग़लत कहा हो तो ? “
“ नहीं , इट इज ओ के । तुम्हें यह जानने का हक़ है। तुम बड़ी हो रही हो , कुछ सालों में तुम भी अपना परिवार बनाओगी , तुम्हें यह समझना चाहिए । “
फिर कुछ रूककर उन्होंने कहा, “ तुम्हारी दादी नहीं चाहती थीं कि मैं तुम्हारी माँ से शादी करूँ , वह गरीब परिवार से थी और उन्हें लगा उनकी ग़रीबी मुझ पर ज़िम्मेदारीयां डाल देगी, मैं अपनी माँ की कभी कोई बात नहीं टालता था, परन्तु मैं तुम्हारी माँ के आत्मविश्वास, और कर्मठता पर फ़िदा था। मैंने माँ का पहली बार दिल दुखाया और उनकी बात नहीं मानी । माँ ने इसे अपनी हार और मेरी पत्नी की जीत मानी । मैं सबसे बड़ा था और माँ विधवा , वह असुरक्षा और क्रोध से भर उठी । वह हर अवसर पर मेरी पत्नी का अपमान करने लगीं । आरम्भ में मुझे लगा, स्नेह और सेवा से हम उनका विश्वास लौटा लायेंगे, इसलिए मैं चुप रहा, परन्तु उनकी मुझ पर हावी होने की इच्छा बड़ती ही चली गई । इतने सालों में वे कितनी बदल गई हैं वे खुद नहीं जानती ।”
“ तो पापा आप उनको शांति से बिठाकर बात क्यों नहीं करते?”
“ वे अपने अहम में इतनी आगे निकल गई हैं कि अब उनसे बात नहीं हो सकती । “
“ तो आप अलग हो जाइए ।”
“ उससे क्या होगा, अपने जितनी भी दूर जायें, वे मन में ही बसते हैं। इससे हमारे साथ रहने की जो ख़ुशियाँ हैं वे भी स्वाहा हो जायेंगी । और परिवार तभी बचते हैं जब हम एक-दूसरे की कुंठाएँ समझ , एडजस्ट करते चलते हैं । यह कुंठा भी तो एक बीमारी ही है, बीमार माँ को कैसे छोड़ दूँ ? “
फिर गेयर बदलते हुए उन्होंने कहा, “ सामान न आने का ताना देना , यह उनका आवरण है, अपनी कुंठा को छुपाने का , असल कारण उनका स्वयं को पराजित समझना है ।”
पापा ने देखा, अन्विता, गंभीर हो रही है, “ उन्होंने शार्प टर्न लेते हुए कहा, “ उदास मत हो वे तुम्हारी माँ से बहुत प्यार करती हैं , और यह बात तुम्हारी माँ जानती है । “
अन्विता को लगा, उसके पापा जैसा कोई नहीं, उसे अपने लिए वह लड़का चाहिए जिसमें पापा के सारे गुण हों , पर फिर भी , फिर भी उसे माँ कीं ज़िन्दगी नहीं चाहिए, दादी से उसे प्यारी है, पर फिर भी…
—-शशि महाजन
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