परिवार का बदलता रूप
परिवार का बदलता रूप
आज के परिवार बदलते हैं,सपनों के पीछे दौड़ते हैं।
आर्थिक ऊंचाईयों पर बढ़ते जाते,पर अपनी जड़ों को भूलते जाते।।
धन-दौलत से भरा है आँगन,पर दिलों में रहती है वीरानी का चमन।
धार्मिक रस्में अब याद नहीं,फैमिली कल्चर का कोई प्रसार नहीं।।
रिश्ते अब सहूलियत से चलते,संस्कार की डोर धीरे-धीरे ढीली पड़ते।
पढ़ाई-लिखाई की चकाचौंध में,आत्मा की शांति खो गई आधुनिक दौड़ में।
फेस्टिवल अब बस तस्वीरों में दिखते,घर के रिचुअल कहीं खो गए, सिसकते।।
पुश्तैनी परंपरा का मान कहाँ,अब तो सहूलियत ही सब कुछ यहाँ।
मंदिर की घंटियाँ अब चुप हैं,धार्मिक अनुष्ठानों में रुचि सुप्त है।।
वह आरती, वह पूजा की बातें,अब बस कहानियों में रह जातीं।।
परिवार में अब संवाद कम है,साथ में बैठने का भी समय कम है।
रिश्ते अब दिखावे के गहने हैं,भावनाओं के धागे कहीं ढहने हैं।।
आधुनिकता में जो खोया है,संस्कारों का दीप मंद हुआ है।
धार्मिक रिवाज अब शून्य हो गए,परिवार के स्तंभ कमजोर हो गए।।
समृद्धि और संस्कार का संगम बने,परिवार फिर से खुशियों का घर बने।
धन से बढ़कर रिश्तों को जानें,संस्कारों की जड़ों को फिर पहचानें।।
संभालो इस बदलते परिवेश को,अपने परिवार के सच्चे परिवेश को।
धन दौलत से नहीं, संस्कारों से जियो,
फैमिली कल्चर को फिर से पनपने दो।।