परिवाद झगड़े
समीक्षार्थ : नवगीत
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~ परिवाद झगड़े ~
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०
मन मुताबिक
दाम लेकर
मिल रही
हैं कुर्सियांँ ।
०
उलटबाँसी
फेर है सब,
देर में
अंँधेर है सब
मर्सिया
गाने लगे हैं
गाँव, कस्बे,
रोग में
जकड़े हुए हैं
क्षुब्ध ज़ज्बे ।
०
मूक जनता
के सहारे
झिल रही हैं
कुर्सियाँ ।
०
उलट गलियाँ
पुलट रस्ते,
साँप को
डसते सपेरे
तंत्र में
फँसते-फँसाते
डूब उतरे
मुँह अँधेरे ।
०
तिक्त, काले
होंठ जैसी
हिल रही हैं
कुर्सियाँ ।
०
आँख इनकी
रोज़ भिंचती,
टाँग इनकी
रोज़ खिंचती,
रंग-फीके
ताँत दीखे
जब भी तनते,
मूँछ वाले
बैठ मुंसिफ़
न्याय करते ।
०
बेवजह
परिवाद
झगड़े
छिल रही हैं
कुर्सियाँ ।
०
मन मुताबिक
दाम लेकर
मिल रहीं हैं
कुर्सियाँ ।
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— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी,(रहली),सागर,
मध्य प्रदेश ।