*परिवर्तन (लॉकडाउन पर आधारित कहानी)*
परिवर्तन (कहानी)
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“पिताजी ! जरा अपनी थाली पानी से धो कर रख दीजिए ।”
रसोई घर में बर्तन माँज रही लीलावती ने अपने ससुर दीपक बाबू से जब यह कहा तो दीपक बाबू का मुँह फूल गया । गुस्सा सातवें आसमान पर चला गया । देखते ही देखते उनका चीखना आरंभ हो गया।
” तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमसे थाली धोने के लिए कहने की ? क्या अब इस घर में हमारी औकात यही रह गई है कि हम अपने बर्तन धो कर रखा करें ? जो काम हमने पैंसठ साल में कभी नहीं किया , वह तुम हमें सिखाओगी ? अगर तुम्हारी सास जिंदा होतीं तो तुम्हें इसका उचित जवाब देतीं..” और भी न जाने क्या-क्या बड़बड़ाते रहे दीपक बाबू।
बेचारी लीलावती की आँखों में आँसू आ गए । सोचने लगी कि मैंने क्या कुछ गलत कह दिया ? लॉकडाउन को शुरू हुए इतने दिन हो गए ! सारे घर के बर्तन माँजने का काम मेरे कंधे पर ही आ पड़ा है। पति जरूर थोड़ी बहुत मदद कभी-कभी कर देते थे । अन्यथा जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई ,नौकर – चाकर घर में आना बंद हो गए। और फिर झाड़ू -पोछे के साथ- साथ बर्तन माँजने का काम भी सिर पर आ गया । बर्तन माँजने के बाद आँखों में आँसू लिए हुए लीलावती अपने कमरे में जाकर लेट गई।
दोपहर का खाना निबट चुका था । अब शाम का खाना बनना था । पूरा दिन कैसे बीता ,लीलावती को पता भी नहीं चला। दुख ने उसकी सोचने समझने की शक्ति भी समाप्त कर दी थी । उसकी याददाश्त में भी तो इतना काम कभी नहीं हुआ । घर में बर्तन माँजने वाली तथा झाड़ू – पोछा लगाने वाली दो नौकरानियाँ आती थीं। काम करके चली जाती थीं । लीलावती बच्चों को सँभालती रहती थी । थोड़ा पढ़ाती थी और बाकी समय रसोई में खाना बनाने में व्यतीत हो जाता था । मगर जब से कोरोना का चक्कर शुरू हुआ , सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया। उसी अस्त-व्यस्त जिंदगी का एक पहलू घर का झाड़ू , पोछा और बर्तन माँजना था, जिसके लिए जरा- सा ससुर जी से कह क्या दिया ,बस पूरे घर में क्लेश कर दिया ।
शाम हुई । लीलावती बिस्तर से उठी और खाना बनाने के काम में जुट गई । रात का खाना हमेशा से घर पर सब लोग जल्दी ही खा लेते हैं। खाना बनाकर लीलावती एक थाली में सब्जी और पराँठा सजाकर ससुर जी के पास कमरे में ले गई और फिर जैसा कि नियम था , एक-एक पराँठा गर्म सिंकता गया और लीलावती ससुर जी को पहुँचाती गई। लेकिन इस बार एक फर्क था ।लीलावती का चेहरा उदास था , तो ससुर जी भी गुमसुम थे । दोनों ने एक दूसरे से एक भी शब्द नहीं कहा । जब ससुर जी ने खाना खा लिया तो लीलावती उनकी थाली उठाकर रसोई में माँजने वाले बर्तनों में रखने चली आई । उसके बाद लीलावती ने भी खाना खा लिया और घर के सारे सदस्य जब खाना खा चुके तो लीलावती अपने कमरे में जाकर लेट गई। दिन भर की थकान में उसे नींद आई और कब घंटा – आधा घंटा बीत गया , उसे पता भी नहीं चला ।
सहसा रसोईघर में बर्तनों की खटपट सुनाई दी । लीलावती को आश्चर्य हुआ। पति और बच्चे तो कमरे में हैं । यह रसोई में बर्तनों की खटपट कैसी हो रही है ? देखने के लिए रसोई की तरफ दौड़ी और रसोई में प्रवेश करते ही आश्चर्यचकित रह गई । ससुर जी बर्तन माँज रहे थे । उनके हाथ में थालियाँ थीं। कढ़ाई और कुकर मँजे हुए रखे थे । थाली छीनते हुए लीलावती ने कहा ” पिताजी ! आप यह क्या कर रहे हैं ? यह आपको शोभा नहीं देता । हम लोग करने के लिए हैं जो ! ”
दीपक बाबू ने शांत भाव से कहा ” बहू ! तुम दोपहर ठीक कह रही थीं। वास्तव में यह जो विपदा आकर पड़ी है , उस से जूझना घर की सामूहिक जिम्मेदारी है । अगर तुम मेरी बेटी होतीं, तो क्या मैं तुम्हें अकेले इस तरह काम के बोझ से लाद देता ?”
सुनकर लीलावती की आँखों में खुशी के आँसू भर आए । उसे लगा , वह अपने मायके में पिताजी के सामने खड़ी है।
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लेखक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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