परिंदों की व्यथा
एक छोटे से गांव में मेरा घर, सामने शहर की ओर जाती हुई सड़क… दूसरी ओर विशाल बरगद व आम के वृक्ष…
समय बीतता गया शहरीकरण के चलते सड़क को हाईवे में परिवर्तित करने के प्रस्ताव पारित हुए, फिर बड़े-बड़े रोलर वह जेसीबी ने मेरे घर के आंगन व कुछ हिस्से को ध्वस्त कर दिया, साथ ही ध्वस्त हो गई बचपन की यादें…. जैसे धमाचौकड़ी मचाना, पापड़-बड़ी का सूखना और पिताजी का अखबार पढ़ना। जब विशाल बरगद व आम के पेड़ों को जमींदोज किया गया, वो दिन मेरे जेह़न में आज भी जिंदा है।
कटे हुए विशाल तनों से रिसता पानी…
मानो अश्रुधारा के रूप में बह रहा था, इधर-उधर पड़ी चोटिल शाखाएं मानो कराह रही थीं। शाम को जब पक्षियों के झुंड आने शुरू हुए तो बहुत दर्दनाक मंजर था… मानो आज यहां कोई भूकंप आया था, जिसमें परिंदों के आशियाने उजड़ गए थे, सुबह जिन चूजों को पेड़ों के आगोश में छोड़कर चिड़ा-चिड़ी दाने लेने गए थे, उनको मृत अवस्था में देखकर पक्षी बिलख रहे थे, अजन्मे बच्चे, घोंसलों व अंडोंं सहित निस्तेनाबूत हो गए थे।
वातावरण में दर्द का कोलाहल गूंज रहा था… बहती ठंडी हवा, विशाल आसमान, गोधुली बेला का सौंदर्य सब मौन थे, बस पक्षियों की चीखें गूंज रही थी। आसमान से गुजरते अन्य पक्षियों के झुंड भी नीचे आकर अपने साथियों को ढांढस बंधा रहे थे। फिर अंधेरी रात घिर गई, पक्षियों के विशाल समुदाय ने बिजली के तारों व पेड़ के ठूंठों पर रात गुजार दी। सुबह तक कुछ और पक्षियों की भी मृत्यु हो गई थी। बचे हुए भूखे-प्यासे, बिलखते पक्षियों ने उड़ानों को थाम कातर नजरों में दिन और रात गुजार दिये….
इस हृदय विदारक भूकंप त्रासदी रूपी घटना को किसी भी मीडिया ने कवर नहीं किया। वरना इस तरह की त्रासदी यदि इंसानी आबादी में होती तो टीवी, अखबार, रेडियो आदि प्रसारण में जुट जाते, मृतक व घायलों को मुआवजा दिया जाता। लेकिन जब यही घटना मूक दरख्तों व परिंदों के साथ घटी तो… उनके साथ कोई नहीं था, बस था तो…. चोटिल वृक्ष और हताहत परिंदों के आंखों में प्रश्न, कि क्या ये स्वार्थी इंसान हमें नए आश्रय व मुआवजे दिला सकेंगे ? जिनकी वजह से आज हमारा यह हश्र हुआ है।और फिर अगली सुबह परिंदों ने एक दूसरे को सांत्वना दी और वहां से पलायन कर गए।
रचनाकार
विनीता सिंह चौहान
इंदौर मध्यप्रदेश
विधा लघुकथा
स्वरचित मौलिक रचना