“परिंदा”
“क्या सोचा कभी परिंदा बसेरा कैसे बनाता है,
अपनी छोटी सी ज़िंदगी मे सुकून कहाँ से लाता है,
इस काश! के समंदर से सोचो कभी निकलकर ,
सीखो उस परिंदे से , जो तिनके तिनके से अपना घर सजाता है।।”
“क्या सोचा कभी परिंदा बसेरा कैसे बनाता है,
अपनी छोटी सी ज़िंदगी मे सुकून कहाँ से लाता है,
इस काश! के समंदर से सोचो कभी निकलकर ,
सीखो उस परिंदे से , जो तिनके तिनके से अपना घर सजाता है।।”