Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
28 Dec 2017 · 4 min read

“पराली- कोई चारा भी तो नहीं?”

“पराली- कोई चारा भी तो नहीं?”

लगता है समय आ गया है पीछे मुड़कर देखने का। उन्हें याद करने का जिन्होंने मानव और मानवता को जीने का वैज्ञानिक तरीका तब निजाद किया था, जब न मानव मानव को जानता था न मानवता परिभाषित थी। लोग स्वतः विचरण करते थे और रहन- सहन, भूख-भरम, आमोद- प्रमोद, सुख-दुख, दिन-रात, मान-सम्मान, रुचि-अरुचि, धन-दौलत, वंश-वंशादि, लालन-पालन और क्रीड़ा-श्रृंगार इत्यादि से बेफिक्र होकर हँसते थे, गाते थे और झूमकर नाचते थे। पर जो भी करते उसके बारे में पूर्णतया विश्वस्थ थे और उसके गुण- दोष को अपने माध्यम से जानकारी करके, शोध करके उसका उपयोग करते थे। घूमते थे फिरते थे और जीवन जरूरत की वस्तुओं को उपलब्ध साधनों के द्वारा, या यूँ कहें कि तिकड़म बिठाकर अपने उपयोग की रचना करते थे। घास- पूस से लेकर वन्य वनस्पतियों खान-पान करते थे और उसी को औषधि बनाकर अपने आप को सुरक्षित रखते थे। जिसको पूर्णतया जान-समझ पाते थे उसपर तबतक हाथ नहीं लगाते थे, निरंतर उसका शोध करते थे और शोध सफल होने पर उसको प्रयोग में लाते थे।उदाहरणार्थ, यह मनन करने का विषय है कि साँप की जहरीली और बिन जहरी प्रजातियों की पहचान आज के विज्ञान का नहीं है। शनै: शनै: समय बीतता गया और हम पाषाण युग, ताम्र युग इत्यादि से होते हुए आज विज्ञान युग जिसे अर्थ युग भी कह सकते है में पहुँचकर अपने आप को विकसित मान रहें है और जो मर्जी में आ रहा है धड़ल्ले से कर गुजर रहे हैं, मानों एक नन्हा सा बालक अपने खिलौने से खेलकर खुश हुआ और मन भर गया तो तोड़ दिया। ठीक उसी प्रकार का हमारा आज का विकसित विचार है जो अपने कुछ क्षणिक फायदे के लिए कुछ भी करने को तैयार ही नहीं अपितु कर भी रहा है। संसाधनों का उन्नत सृजन हमारे हितकर गति के लिए निर्माण प्राप्त करता है पर उससे होने वाले नुकशान को छुपा जाना उस विनाश को आमंत्रित करता है जो अचानक तो नहीं होता पर जब भी होता है हमें लाचार कर देता है और हम खून के आँसूं रोने को वाध्य हो जाते है जिसका जबाब शायद किसी के पास नहीं होता और हम अनुसंधान यानी री-सर्च के डेटा में गोटी बिछाने लगते है जो कागजों और व्याख्यानों में अति सुंदर दिखता है पर हकीकत में जली हुई पराली का धूआँ ही आकाश को आच्छादित करता है और हम ठीक से खाँस भी नहीं पाते।
यह किसी पर उँगली दिखाना नहीं है पर उस तीन अँगुलियों को समझना है जो अपनी तरफ इशारा करती हैं कि तूँ भी तो जिम्मेदार है तो उठती क्यों नहीं, हथेली की शोभा तुझसे भी तो है। एक अगुवा रहीं है और तूँ शरमा रहीं है। खैर, अभी न बहुत समय गुजरा न सब कुछ लुट ही गया है, समय का करवट है बदलता है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। इसी समय ने बहुत कुछ दिया है तो बहुत कुछ लिया भी है। मसलन चाँद की सैर हुई और मंगल पर निवास हुआ, अच्छाई तो अच्छी होती ही है और झूमते हुए हम प्रदूषण के जनक बन गए। पहाड़ पिघले, वन जले और समंदर गुर्राने लगा, लोगों ने झपकी ली और आतंकवाद के मुँह में हम अपने आप को ठुसते चले जा रहे हैं, सर्वोपरिता का नया रोग उछाले मार रहा है कोई विटो पर वीटो दागे जा रहा है तो छूट भैये परमाणु इत्यादि का बमबम कर रहे हैं। जितने बड़े आतंकी उतने बड़े उनके सिपहसालार, कोई दूध पिलाकर पाल रहा है तो को अपना सब कुछ लुटाकर भी विषधर को जिला रहा है। अब नाम धाम के चक्कर में समय व्यर्थ करना ठीक नहीं, ओ तेरा है और तेरा ही है पर सूरत शक्ल लमेरा है। शायद हम भूल रहें हैं कि प्रकृति ही जीवनदायिनी हैं और जीवधारी हैं, वो प्रतिपल हमारी रक्षा करती है और हम बदले में उसे क्या दे रहें हैं? विष, आग और छरण जन्य कोढ़……।
बड़ी बड़ी बात और छोटा मुँह कैसे व क्यो किया जाय, हम ठहरे धरती पुत्र, उसी को हरियाली दे पाएँ तो जीवन धन्य है पर लगता है कि हमें भी आधुनिक चलन का दौरा पड़ रहा है, चकबंदी और लहराती सड़कों से जो कुछ बित्ते बीघे जमीन बाप-दादों के हिस्से में आई थी वह भी सत्तर के दशक से बाँटते बेचते अब बड़ी बड़ी क्यारी का रूप ले चुकी है जिसको ट्रैक्टर से जुताई कर पाने में झिझकना ही पड़ता है पर हाय रे मजबूरी बैल बेचारा बेकार हो गया, पुराने तो स्वर्गवासी हो गए और नए जर्सी हो गए जो न हल में जुत पाते हैं न जुवाठा ले पाते हैं। गाय का बछड़ा अशुभ हो गया और अनेरूवा बनकर हरी फसल का फलूदा निकाल रहा है, काहें का सोहर और काहें का घर बछवा, अब तो नुकीली सींग और प्रशासन का फतवा उलंघन का डर हचमचा रहा है और किसान पूँछ सहला रहा है। एक बीघे खेत की धान रोपाई से कटाई तक का खर्च लगभग 5000 से 6000 का होता है और ठीक पैदावार हुई तो लगभग सात कुंटल अन्न मिला, जब कि 1100 कुंटल बाजार भाव है, अब पराली जलाई जाय या खाई जाय, समझ से परे की बात है। अगर जली तो फसल पोषक कीड़े मरेंगे और आकाश रूठ जाएगा, खाएँ तो कैसे खाएँ, कोई चारा तो है नहीं, किसान/ इंसान के जिलाने- खिलाने का…..।
सब कुछ चलता है, “मुदहुँ आँख कतहु कछु नाहीं”, “होईहें सोई जो राम रचि राखा”, “ऐसा पानी पीता है” इत्यादि कहावतों को मजाकिया तौर से परे कर के देखना ही होगा अन्यथा “जस करनी तस भरनी”, “जस काँकरि तस बीया”, ” बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होय” अब सत्यता के धरातल पर दिखने लगा है। आइए अब पुआल का सदुपयोग अपने बाबा दादा की तरह करें, पलास्टिक की चादर की नहीं बल्कि पूआल की मड़ई बनाएँ, जिसपर कोहड़ा, लौकी और नेनुआ इत्यादि की वेल चढ़ाकर हरी सब्जी का आनंद लें और अपनी जमीन को शीतल करें।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

Language: Hindi
Tag: लेख
414 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
कुछ तो स्पेशल देख परिंदे।
कुछ तो स्पेशल देख परिंदे।
पंकज परिंदा
सोच
सोच
Neeraj Agarwal
आ अब लौट चलें.....!
आ अब लौट चलें.....!
VEDANTA PATEL
हद
हद
Ajay Mishra
ग़रीबी में भली बातें भी साज़िश ही लगा करती
ग़रीबी में भली बातें भी साज़िश ही लगा करती
आर.एस. 'प्रीतम'
देवी महात्म्य चतुर्थ अंक * 4*
देवी महात्म्य चतुर्थ अंक * 4*
मधुसूदन गौतम
हमेशा जागते रहना
हमेशा जागते रहना
surenderpal vaidya
कलमबाज
कलमबाज
Mangilal 713
4788.*पूर्णिका*
4788.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
*पुस्तक समीक्षा*
*पुस्तक समीक्षा*
Ravi Prakash
Preschool Franchise
Preschool Franchise
Alphabetz
कल में कल की कल्पना,
कल में कल की कल्पना,
sushil sarna
नया नया अभी उजाला है।
नया नया अभी उजाला है।
Sachin Mishra
एक क़ता ,,,,
एक क़ता ,,,,
Neelofar Khan
शायद ...
शायद ...
हिमांशु Kulshrestha
अफसोस है मैं आजाद भारत बोल रहा हूॅ॑
अफसोस है मैं आजाद भारत बोल रहा हूॅ॑
VINOD CHAUHAN
समय बदल रहा है..
समय बदल रहा है..
ओनिका सेतिया 'अनु '
*जीत का जश्न*
*जीत का जश्न*
Santosh kumar Miri
जेठ सोचता जा रहा, लेकर तपते पाँव।
जेठ सोचता जा रहा, लेकर तपते पाँव।
डॉ.सीमा अग्रवाल
हर एक अनुभव की तर्ज पर कोई उतरे तो....
हर एक अनुभव की तर्ज पर कोई उतरे तो....
कवि दीपक बवेजा
बाण मां के दोहे
बाण मां के दोहे
जितेन्द्र गहलोत धुम्बड़िया
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर समस्त नारी शक्ति को सादर
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर समस्त नारी शक्ति को सादर
*प्रणय*
"घोषणा"
Dr. Kishan tandon kranti
मैं अक्सर उसके सामने बैठ कर उसे अपने एहसास बताता था लेकिन ना
मैं अक्सर उसके सामने बैठ कर उसे अपने एहसास बताता था लेकिन ना
पूर्वार्थ
*
*"मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम"*
Shashi kala vyas
I became extremely pleased to go through your marvellous ach
I became extremely pleased to go through your marvellous ach
manorath maharaj
दोस्त,ज़िंदगी को अगर जीना हैं,जीने चढ़ने पड़ेंगे.
दोस्त,ज़िंदगी को अगर जीना हैं,जीने चढ़ने पड़ेंगे.
Piyush Goel
*मनः संवाद----*
*मनः संवाद----*
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
...
...
Ravi Yadav
एक इस आदत से, बदनाम यहाँ हम हो गए
एक इस आदत से, बदनाम यहाँ हम हो गए
gurudeenverma198
Loading...