परवाह
सौम्या गांव में पली बड़ी एक सरल स्वभाव की लड़की थी। उसने गांव में रहकर ही शिक्षा प्राप्त की थी, सौम्या बाहरी दुनिया से बेखबर थी। पढ़ने के लिए स्कूल जाना और वहां से सीधे घर आना यहीं तक उसकी दुनिया सिमटी हुई थी। घर के सारे कामकाज करना और पढ़ना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था। सौम्या को बाहर आना-जाना बड़ा कठिन काम लगता था लेकिन पढ़-लिखकर नौकरी करने के सपने को आंखो में संजोए उसने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी कर ली।
इसी दौरान सौम्या के बडे़ भाई की नौकरी शहर में लग गयी। सौम्या और उसके भाई-बहन बड़े भाई के साथ शहर रहने आ गए क्योंकि गांव में उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी। गांव की सरल व शांत जिंदगी के बीच से निकलकर शहर की भीड़ भरी जिंदगी की तेज रफ्तार में कदम से कदम मिलाना आसान तो नहीं था लेकिन सपनों को साकार करने के लिए सौम्या इस रफ्तार के साथ सामजस्य बैठाने की कोशिश करने लगी। सौैैम्या अपनी पढ़ाई मन लगाकर करती लेकिन शहर की चकाचौंध और यहां की तेज रफ्तार उसकी शैक्षिक योग्यता पर हावी होने लगी क्योंकि घर से बाहर निकलकर शैक्षिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान का होना भी जरूरी था। धीरे-धीरे सौम्या शहर के तौर-तरीके सीखने लगी लेकिन फिर भी कहीं अकेले बाहर आने जाने में वो बहुत डरती थी। जब भी उसे किसी प्रतियोगिता परीक्षा के लिए शहर से बाहर जाना होता तो उसके साथ घर के किसी सदस्य को जाना पड़ता था इसी बात को लेकर उसके बडे़ भाई उसे अक्सर समझाते नौकरी करने के लिए घर से बाहर अकेले रहना पडेगा। सौम्या मुस्कुराकर बोल देती तब की तब देखी जाएगी और जब नौकरी लगेगी तब अकेले भी रह लूंगी। मम्मी-पापा भी इस बात पर हमेशा सौम्या का साथ ये बोलकर लेते कि लड़की है अकेले कैसे भेज दें ……? इस बात पर अक्सर बड़े भाई सब से नाराज होते लेकिन समय बीत रहा था।
एक दिन सौम्या के बडे़ भाई ने घर में मम्मी-पापा से कहा कि सौम्या का दाखिला आगे की पढ़ाई के लिए शहर से बाहर करवा दिया है उसे वहां रहकर पढ़ाई करनी होगी। इतने में मम्मी बोल पड़ी अकेले कैसे रहेगी…? फिर भाई ने मां को समझाया कि हम कब तक उंगली पकड़कर साथ चलेंगे उसे आत्मनिर्भर बनने दीजिए। सौम्या के मम्मी- पापा को अपने बेटे पर खुद से भी अधिक भरोसा था, सो सब मान गए और सौम्या ने भी हामी भरते हुए सिर हिला दिया। उसे मन ही मन में एक डर भी सता रहा था। अब सौम्या जाने की तैयारी करने लगी, भाई ने जाने लिए रेल टिकट का आरक्षण भी करवा दिया और दूसरे दिन बड़े भाई ने कहा सौम्या तुमने जाने की तैयारी कर ली…? इतने में आवाज आई जी भैया। भाई ने कहा चलो तुम्हें ट्रेन मैं बैठाने स्टेशन तक चलता हूं। ये सुनकर सबके चेहरे पर उदासी छा गयी और जैसे सबकी आंखों में सवाल उमड़ घुमड़़ रहे हां ,सौम्या भी मन में चल रही उधेड़बुन के साथ घर से निकली। स्टेशन पहुंचकर भाई ने सौम्या को ट्रेन में किसी महिला यात्री के साथ बैठाया और महिला से बोले ये मेरी बहन है, पहली बार अकेली जा रही है आप ध्यान देना। भाई ने सौम्या को एक डायरी देते हुए कहा इसमें फोन नंबर हैं यदि कोई परेशानी हो तो फोन कर लेना। सौम्या ने कहा ठीक है भैया। सौम्या के मन में एक अजीब सी उधेड़बुन चल रही थी और ना चाहते हुए भी मन में बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। भाई सौम्या का हौंसला बढ़ा रहे थे लेकिन उनके खुद के चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी जिसे सौम्या साफ पढ़ पा रही थी। देखते ही देखते ट्रेन स्टेशन से रवाना हो गयी, जितनी रफ्तार से ट्रेन दौड़ रही थी उससे कहीं अधिक तेज सौम्या का मन दौड़ रहा था, मन में आशंकाएं दौड़ रही थीं। मन पल भर में कई सवाल करता और खुद ही उनके जवाब भी ढूंढ लेता ये कशमकश पूरे सफर में साथ चलती रही। पूरी रात सौम्या चैन से सो नहीं पाई और खुद से बातें करती रही। इसी उधेड़बुन में कब स्टेशन आ गया पता ही नहीं चला। सौम्या स्टेषन पर उतरी अब उसे अपने गंतव्य तक जाने के लिए दूसरी ट्रेन पकड़नी थी लेकिन उसके लिए ये सब आसान नहीं था उसने हिम्मत करके किसी से ट्रेन के बारे में जानकारी ली और आगे का सफर भी बिना किसी परेशानी के पूरा हो गया। अब सौम्या को होस्टल तक पहुंचना था उस दिन उसे लगा अपनों के बिना अकेले अपनी मंजिल तक पहुंचना कितना मुश्किल होता है फिर ऑटो करके होस्टल तक पहुॅच गई। होस्टल जाकर अपना पता वगैरहा लिखवाया, हालांकि भाई सौम्या के रूकने की व्यवस्था पहले से ही फोन पर कर चुके थे और उसे कमरा मिल गया। अब सौम्या कमरे में पहुंचकंर थकान से राहत महसूस कर ही रही थी कि इतने में कोई दरवाजे पर आया और बोला कि आपके घर से कोई आया है। सौम्या को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, फिर उसने पूछा कि कौन है ? उसने बताया कि आपके भाई आए हैं। सौम्या कुछ भी समझ नहीं पा रही थी और कहा कि वो कहां हैं ? उसने बताया बाहर खडे हैं मिल लो। सौम्या बाहर पहुंची तो देखा सामने भाई खडे थे। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, उसके चेहरे पर मुसकान भी थी और आंखों में आंसू भी। शब्द गले तक आ पहुंचे, ऐसा लगा जैसे वो बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन कह नहीं पा रही थी। कुछ देर की खामोशी के बाद उसने पूछा आप कैसे आ गए ? उन्होंने हंसते हुए कहा कि ये तेरा नहीं मेरा और इस पूरे परिवार का इम्तेहान था। पहले सोचा था कि तुझे बैठाकर घर लौट जाउंगा लेकिन बाद में मन में तेरी परवाह ने मुझे इतना विवश कर दिया कि मैं तेरे पीछे यहां तक आ पहुंचा केवल ये देखने कि तुझे कोई परेशानी तो नहीं हुई। यकीन मानना ये परीक्षा बेहद कठिन थी, शायद जिंदगी की सारी परीक्षाओं से अधिक जटिल, लेकिन खुशी इस बात को लेकर हुई कि इसमें हम सभी पास हो गए क्योंकि भावनाओं ने हमें एक दूसरे से इतना मजबूती से बांधें रखा कि ये मुश्किल सा समय जीना भी कहीं न कहीं जरुरी सा लगा…। आज भी वो बात जब भी याद आती है, मन उस ईश्वर को धन्यवाद भी देता है कि उसने इतना अच्छा भाई और परिवार मुझे दिया है।
कमला शर्मा