परम भगवदभक्त ‘प्रहलाद महाराज’
‘बेटा प्रह्लाद! कहाँ तो तेरा कोमल शरीर और तेरी सुकुमार अवस्था और कहाँ उस उन्मत्त के द्वारा की हुई तुझ पर दारुण यातनाएं। ओह! यह कैसा अभूतपूर्व प्रसंग देखने में आया। प्रिय वत्स! मुझे आने में यदि देर हो गयी हो तो तु मुझे क्षमा कर।’
– भगवान् नृसिंहदेव
भक्त-जगत् में प्रह्लाद सर्वशिरोमणि माने जाते हैं। प्रह्लाद की भक्ति में कहीं भी कामना, भय और मोह को स्थान नहीं है, उनकी भक्ति सर्वथा विशुद्ध, अनन्य और परम आदर्श है।🙇
जब भगवान् वाराह ने पृथ्वी को रसातल से लाते समय हिरण्याक्ष को मार दिया तब से हिरण्यकशिपु का चित्त कभी शांत नहीं रहा। यद्यपि वह राजकाज करता था, खाता-पीता था और यथाशक्ति सभी कार्य करता था, तथापि चिंतितभाव से निश्चिंत होकर नही! उसको यही चिंता घेरे रहती थी कि हम अपने भाई का बदला कैसे लें। अपने को अजेय और अमर बनाने के लिये हिमालय पर जाकर वह तप करने लगा। उसने सहस्रो वर्षो तक उग्र तप करके ब्रह्माजी को सन्तुष्ट किया और वरदान प्राप्त किया कि मैं अस्त्र-शस्त्र से, आपके द्वारा निर्मित किसी प्राणी से, रात मे, दिन मे, जमीन पर, आकाश में—कही भी न मरू।
इधर जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने चला गया था, तभी देवताओ ने देत्यो की राजधानी पर आक्रमण किया। कोई नायक न होने से दैत्य हारकर अलग-अलग दिशाओ मे भाग गये। देवताओ ने दैत्यो की राजधानी को लूट लिया। देवराज इन्द्र ने हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू माता को बंदी बना लिया और स्वर्ग को ले चले। मार्ग में देवर्षि नारद मिले और पूछा कि तुम इस परम साध्वी को कहा ले जा रहे हो। तब इन्द्र बोले कि ‘कयाधू गर्भवती है। इसके जब सन्तान हो जायगी, तब इसके पुत्र का वध करके इसे छोड़ दिया जाएगा ताकि दैत्य राजकुमार हम लोगों के लिए आगे बाधक ना हो।’
देवर्षि ने कहा—’इस साध्वी के गर्भ में जो बालक हैं, उसकी महिमा तुम नही जानते। इसके गर्भ में परम भागवत् बालक हैं। उस भागवत को मारा नही जा सकता। उसके द्वारा न केवल देवताओं का, बल्कि सारे जगत् का कल्याण होगा। उससे देवताओं को भय नहीं है। तुम इस साध्वी को छोड़ दो और अपने अपराध के लिए इस साध्वी से तुरंत क्षमा की याचना करो। इसी में तुम्हारा कल्याण हैं।’
इन्द्र ने देवर्षि की बात मान ली। वे ‘कयाधू के गर्भ मे भगवान् का भक्त है।’ यह सुनकर उनकी परिक्रमा करके और क्षमा याचना करके अपने लोक को चले गये।
जब कयाधू देवराज के बन्धन से छोड दी गयी, तब वह देवर्षि के ही आश्रममे आकर रहने लगी। उनके पति जब तक तपस्या से न लौटे, उनके लिये दूसरा निरापद आश्रय नही था। देवर्षि भी उन्हे पुत्री की भांति मानते थे और बराबर गर्भस्थ बालक को लक्ष्य करके उसे भगवद्भक्ति का उपदेश किया करते थे। गर्भस्य बालक प्रह्लाद ने उन उपदेशो को ग्रहण कर लिया और जन्म लेने के बाद भी उसे भूले नहीं।
हिरण्यकश्यपु तपस्या के बल से परम बली हो गया और उसने समस्त देवलोक को जीत लिया। जब प्रह्लाद का जन्म हुआ तो वे मुनिके भगवान् की भक्तिमय उपदेश को भूले नहीं; बल्कि पाठशाला में जाकर पिता की आज्ञा के विपरीत श्रीहरि के भजन और राम-नाम संकीर्तन का उपदेश अपने अन्य साथियों को भी करने लगे। एक बार प्रह्लाद घर आए तो पिता ने उन्हें अपनी गोद में लेकर पूछा- “बेटा बताओ तो, तुमने इतने दिनो में क्या पड़ा ?” प्रह्लाद ने कहा- “पिताजी यह असत्-संसार दुःख स्वरूप है, इसलिए मनुष्य को इसके भोगों में न फँसकर परमानन्द-स्वरूप श्रीहरि का स्मरण और भजन करना चाहिए। “हिरण्यकश्यपु जोर से हंस पड़ा। उसे लगा कि किसी शत्रु ने मेरे पुत्र को बहका दिया है। उसने गुरु पुत्रों को सावधान किया कि “वे प्रह्लाद को सुधारे और इसे कुलोचित धर्म,अर्थ,काम का उपदेश दे।”
गुरु पुत्रों ने प्रहलाद को अपने यहाँ लाकर पूछा- “तुम्हें यह उल्टा ज्ञान किसने दिया है! तो प्रह्लाद ने उत्तर दिया “गुरुदेव यह मैं हूँ और यह दूसरा है, यह तो अज्ञान है। यह सारा संसार इसी अज्ञान में भूला हुआ है। जिस किसी भक्त पर उन कृपालु की दया होती है, तभी उनकी ओर प्रवृत्ति होती है। मेरा हृदय भी उनकी कृपा से उनकी ओर स्वयं ही आकर्षित हो गया है ।”
गुरुपुत्रों ने उन्हें डाँटा, धमकाया और अनेकों प्रकार की नीतियों की शिक्षा देने लगे। यद्यपि भक्त प्रह्लाद को यह सभी ज्ञान नहीं रुचता था, फिर भी उन्होंने गुरुओं की कभी अवज्ञा नहीं की और न उस विद्या का अपमान ही किया। जब गुरु-पुत्रों ने प्रह्लाद को पूर्ण शिक्षित समझा तब हिरण्यकश्यपु के पास उन्हें ले गए। दैत्यराज ने फिर अपने पुत्र से पूछा “बताओ बेटा ! तुम्हारी समझमें अब सबसे उत्तम ज्ञान क्या है ?” भक्ति-हृदय प्रह्लाद जी ने उत्तर दिया ‘विष्णु भगवान के गुणों का श्रवण, कीर्तन और स्मरण, उनके चरण कमलो की सेवा, उन प्रभु की पूजा, उनके प्रति दास्य और सख्य-भाव तथा अपने-आपको उनके समर्पण कर देना, यही सबसे उत्तम ज्ञान है, यही सबसे उत्तम कार्य है और यही मानव जीवन का फल है। सम्पूर्ण क्लेशों और अनर्थों का नाश तभी होता है जब बुद्धि भगवान के श्रीचरणों में लगे, किन्तु बिना भगवान के भक्तों की चरणरज को मस्तक पर धारण किए इस प्रकार की निर्मल बुद्धि प्राप्त होती ही नहीं है।’
पांच वर्ष का नन्हा-सा बालक त्रिभुवन विजयी के सामने निर्भय होकर इस प्रकार उनके शत्रु का पक्ष ले यह असहय हो गया दैत्यराज को। चिल्लाकर हिरण्यकशिपु ने अपने क्रूर सभासद दैत्यों को आज्ञा दी–
“जाओ! तुरंत मार डालो इस दुष्ट को।” सभी दैत्य एक साथ सशस्र उस बालक पर टूट पड़े, परंतु प्रह्लाद निर्भय होकर भगवान् विष्णु का स्मरण करते हुए खड़े रहे। उन्हें तो सर्वत्र अपने दयामय प्रभु ही दिखाई पड़ते थे। डरने का कोई कारण ही नही जान पड़ा उन्हे। असुरों ने पूरे बल से अपने अस्त्र-शस्त्र बार बार चलाए परंतु प्रह्लाद को कोई क्लेश नही हुआ। उनके शरीर से छूते ही वे अस्त्र शस्त्र टुकड़े टुकड़े हो जाते थे पर प्रह्लाद के अंगो में कहीं खरोंच भी नहीं आई।
हिरण्यकशिपु केवल इतने से ही शान्त नही हुआ। उसने प्रह्लाद को मारने के लिए कोई भी उपाय नही छोड़ा। प्रह्लाद मदमस्त हाथी के पैरों के नीचे डाले गए, पर गजराज ने उठा कर उन्हें मस्तक पर बिठा लिया, उनको साँपो की कोठरी में छोड़ा गया पर वे विषधर सामान्य केंचुए के समान हो गए, शेर उनके सामने आकर पालतू कुत्ते के समान पूँछ हिलाने लगा, विष उनके पेटमें जा कर अमृत हो गया। अनेक दिनों तक भोजन तो क्या जल की एक बूंद भी प्रह्लाद को नही दी गई पर वे शिथिल होने के बदले ज्यों-के-त्यों बने रहे। उनका तेज बढ़ता ही जाता था, पहाड़ों से फेंके जाने पर भी वे अक्षत रहे; सागर की गम्भीरता भी उनके लिए हानि नहीं पहुँचा सकी। होलिका उन्हें लेकर आगमें प्रवेश कर गई। उसे गर्व था अपने उस वस्त्र का जिसके धारण से अग्नि का प्रभाव उसके शरीर पर नहीं होता था; पर आग की भीषण लपटोंमें वह जलकर राख हो गई और भक्तवर प्रह्लाद मानों फूलो की सेज से उतर कर निकल आए । उन्होंने फिर दैत्यराज को समझाते हुए कहा- “पिताजी! आप भगवान् से द्वेष करना छोड़ दें। आपने देखा नहीं, भगवान् के प्रभाव के सामने सभी प्रयत्न असफल रहे ? आप भी हरि का स्मरण करें, ध्यान करे और उनके आश्रय में आकर निडर हो जायें। वे प्रभु बड़े दयालु हैं।”
अब हिरण्यकशिपु ने अपने हाथ से प्रहलाद को मारने का निश्चय किया। उसने गरजकर पूछा ‘अरे मूर्ख! तू किस के बल पर मेरा बराबर तिरस्कार करता है। कहां है तेरा वह सहायक? कहा है तेरा वह हरि? मैं अभी तेरी गर्दन काटता हूं। देखता हूं कौन आता है तेरी रक्षा करने के लिए? प्रहलाद ने नम्रता पूर्वक कहा ‘पिताजी! आप क्रोध न करें, सबका बल उस एक निखिल शक्तिसिंधु के सहारे ही है। मैं आपका तिरस्कार नहीं करता। संसार में जीव का कोई शत्रु है तो उसका अनियंत्रित मन ही है। भगवान तो सब जगह सब कही है, कण-कण और अणु-अणु में उसकी सत्ता विद्यमान है। वह मुझमें है, आपमें है, आपके हाथ के खड़ग में है, इस खंभे में है, सर्वत्र है।’
‘खम्भे के भीतर भी!’ दैत्यराज चौका वह अपने अज्ञान के कारण इस रहस्यमय सत्य को समझ न सका। उसने अपनी गदा उठाई और पूरे बल से खंबे पर प्रहार किया। खम्भा फट गया और उसके मध्य से एक भयंकर आकृति वाले नृसिंह जी प्रकट हुए। उनके तेज से दिशाएँ जल उठीं। वे गर्जते हुए हिरण्यकश्यपू पर झपटे और उस अप्रतिम शक्तिशाली का, वरदान की समस्त मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए, प्रभु ने संहार कर दिया।
दैत्यराज मर गया, पर भगवान् नृसिंह जी का क्रोध शान्त न हुआ। वे अब भी गर्जना कर रहे थे। देवताओंमें किसी की भी शक्ति नहीं थी कि उनके सामने जायें। स्वयं ब्रह्माजी और शंकरजी भी दूर खड़े थे। अंतमें ब्रह्मा जी ने भक्तवर प्रह्लाद को ही उनके पास भेजा। प्रह्लाद निडरता पूर्वक जाकर भगवान के चरणों से लिपट गए। भगवान् ने अपने प्रियभक्त को छाती से लगा लिया और गोदी में बैठाकर भगवान नृसिंह बार-बार अपनी जीभ से प्रहलाद जी को चाटने लगे। भगवान ने स्नेहमयी जननी की भांति प्रहलाद का मस्तक सूंघते हुए बड़े ही कोमल वचनों में संकुचित होते हुए से कहा– ‘बेटा प्रहलाद! मुझे आने में बहुत देर हो गई। तुझे अनेक कष्ट सहने पड़े, तू मुझे क्षमा कर दें।’
भगवान् के श्रीमुख से ऐसी वाणी सुनकर भक्तवर प्रह्लाद का हृदय भर आया। आज त्रिभुवन के स्वामी उनके मस्तक पर अपना अभयकर रख कर उन्हें स्नेह से चाट रहे थे। प्रहलाद जी धीरे से उठे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति की। बड़े ही भक्ति भाव से उन्होंने भगवान का गुणगान किया। भगवान् ने उनसे वर माँगने को कहा तो प्रह्लाद बोले- ‘भगवन्! क्या आप मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं ? जो सेवक अपनी सेवा के बदले वरदान चाहता हैं, वह सेवक नहीं, व्यापारी है। अगर फिर भी आप मुझे वरदान देना ही चाहे तो मुझे यही दान दीजिए कि कभी भी मेरे हृदय में किसी प्रकार की कामना पैदा न हो तथा मेरे पिता और गुरु-पुत्र जो आपके विरोधी थे, उनको भी आप निष्पाप कर दीजिए।” भगवान् का हृदय आनन्द से भर गया। वे बोले– “प्रह्लाद जिस वंशमें मेरा भक्त पैदा होता है वह वंश का वंश अपने सभी प्रकार के पापों से छूट जाता है, फिर तुम्हारे पिता और अन्य दैत्यों का तो कहना ही क्या!” भगवान ने यह वर भी दिया कि मैं कभी भी प्रह्लाद की सन्तति का वध नहीं करूंगा। इस प्रकार अपने वंश को कल्प-पर्यंत उन्होंने अमर बनाया और बादमें अपने परम भागवत पौत्र बलि के साथ सुतल में चले गए जहां वे तभी से भगवान् की आराधना में नित्यतन्मय रहते हैं।
||जय श्रीहरि||