परमात्मा पिता हैं तो प्रकृति हमारी माँ हैं!!
अगर परमात्मा हमारे पिता हैं तो प्रकृति हमारी माँ हैं .दुनिया में जब बच्चे का जनम होता हैं तो सबसे पहले उसका मिलन उसकी माँ से होता हैं ,फिर माँ उसे अपने पिता से परिचित कराती हैं .उसी तरह जैसे जैसे हम प्रकृति के समीप होते जाते हैं ,हम परमपिता के करीब भी होते जाते हैं . साधक जब परमपिता की तरफ अपने कदम बढ़ता हैं तो सबसे पहले वह प्रकृति के करीब आता हैं .चाद ,तारे ,हवा ,धुप पेड़ पौधे सभी उसके मित्र और गुरु बन जाते हैं .सभी उसकी इस अभूतपूर्व यात्रा के सहायक बन जाते हैं. भगवान में मिलने से पहले भीतर भगवता आनी जरुरी हैं . और यह भगवता तुम्हे कोई और नहीं सीखता बल्कि प्रकृति खुद सीखाती हैं ।
भ – भूमि तुम्हे भार को धरना सीखती हैं .गंभीर बनो , भीतर धर्य धरो ।
ग – गगन तुम्हे विस्तृत होना सीखता हैं ,विशाल बनने की सीख देता हैं ।
व -वायु तुम्हे बहना सीखता हैं . चाहे कोई भी परिस्तिथि हो तुम सदैव हलके रहो बहते रहो .कोई चयन मत बनायो अगर तुम संत हो तो साधको और शैतानो दोनों के बीच एक सामान ही रहो .।
आ -अग्नि हर बुरे भाव ,विचार और बीती हुए बातो को भुला या जला देने की सीख देता हैं .अग्नि का गुण हैं की उसकी लौ सदैव उपर की तरफ ही जलती हैं .यह लौ तुम्हे हर पल परमपिता की तरफ बढ़ने की सीख देती हैं ।
न – नीर -नीर तुम्हे क्या सीख देता हैं ? पानी हर परिस्तिथि में बहता रहता हैं समुद्र से मिलने के लिए .उसके रास्ते में बड़े बड़े पत्थर आये या नीचे पथरीली जमीन हो ,वह फ़िक्र नहीं करता बस बहता जाता हैं .यानि एक साधक के जीवन में भी उसकी परिस्तिथिया कठिन होंगी ही ..पथरीली होंगी ही पर उसे बहते जाना हैं।