पद्मावती छंद
पद्मावती मात्रिक छंद)
[१०,८,१४ यति, प्रथम दो यतियों में तुकांत ( पदानुप्रास )
अंत–गा गा ( किसी अन्य तरह का चौकल अमान्य )
चार चरण , दो दो या चारों चरण सम तुकांत
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नैनों का काजल ,जैसे बादल , घोर घटाएँ हो जैसे |
ऊपर से चितवन , हरती है मन , हाल बताएँ अब कैसे ||
भाव हृदय पागल,खोज रहे हल, मिलता नहीं इशारा |
बेवश रहता मन , गोरी है धन , मैं कैसे करूँ किनारा ||
जीवन में जब गम , आते हरदम , तब लगता है कुछ हारा |
मधु गीतों को सुन , पहचाने धुन , तब लगता कुछ न्यारा ||
पद चिन्हों पर चल, आगे का कल, बनता है जहाँ सितारा |
बनती अच्छी मति, जाने हम गति, बहती तब निर्मल धारा ||
पथिक देखता मग , कैसा है जग , सदा जोड़ता वह नाता |
रखता अपनापन , निर्मल है मन , सबको समझे वह भ्राता ||
अंजाना है पथ , खाली है रथ , फिर भी कहलाता दाता |
रखना है साहस , आएगा रस , जग को वह है बतलाता ||
यात्रा अंतिम जब , राह मिले तब , मुक्ति धाम की है ज्वाला |
छोड़ चला यह मन , अपना निज तन ,जिसको था उसने पाला ||
नहीं आयगा कल , अंतिम है पल , चढ़े पुष्प बनकर माला |
लोग कहेगें बच , राम नाम सच , जीवन मकड़ी है जाला ||
लोग कहेगें चल , नष्ट हुए पल , अंतिम यात्रा तैयारी |
शाम हुई. अब, छोड़ गया सब , समय बड़ा है यह भारी ||
इतना था जीवन ,भोग गया तन , अब आगे है लाचारी |
करनी का श्री फल , आएगा ढल , नई मिलेगी अब पारी ||
सुभाष सिंघई
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पद्मावती मात्रिक छंद)
[१०,८,१४ यति, प्रथम दो यतियों में तुकांत ( पदानुप्रास )
अंत–गा गा ( किसी अन्य तरह का चौकल नहीं )
चार चरण , दो दो या चारों चरण सम तुकांत
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मुक्तक
भरे हलाहल नर, दिखता तत्पर , दंश मारता है जाता |
कहता है अमरत , जिसमें फितरत, भरकर सम्मुख ही लाता |
अपनी ले हसरत , करता कसरत , दुनिया का लेता ठेका –
जब दिखता मरघट , करता खटपट, हाय- हाय को है पाता |
यह तन भी जानो , मेरी मानो, फूटा कलशा कहलाता |
ईश्वर का वंदन , होता चंदन , नहीं समझ में कुछ आता |
मिलता कर्मो से , यह धर्मो से , सार निकलते है देखा –
अब कोई माने , या मत माने , किया हुआ ही नर पाता |
प्रभु की है लीला , सूखा गीला , सब उसको ही स्वीकारो |
लाल हरा नीला , या हो पीला , दुख सुख जैसा सदा निहारो |
मत करना लालच , दुनिया में नच, मत मंशा को दिखलाना –
प्रभु सभी करेगें , कष्ट हरेगें , जो देगें वह सिर धारो |
सुभाष सिंघई
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