पत्नी को पत्र , वर्ष: १९०२ सत्य हास्यास्पद कथा.
पत्नी को पत्र : (वर्ष: १९०२)
मेरे बड़े दादाजी का मेरी दादी को पत्र। “कहानी पूरी फिल्म है, लेकिन पूर्ण सत्य है” कहानी 119 साल पुरानी!
कहानी का उपसर :
श्रीमती निशितारिणी दासी मेरे दादाजी की बुआ, यानि मेरे परदादा, राय बहादुर ब्रजलाल घोष, उन की बहन, हमारी कहानीकार थी, उन्हीने हमें बताया हमारे पूर्व पुरुष कैसे बंगाल से लाहौर 1780 (अब पाकिस्तान) आये औऱ 1947 तक लाहौर में रहे तथा विभाजन के बाद कैसे वृन्दावन पहुँचे; औऱ हमारे परिवार की कई अन्य कहानियां।
हम लोग जमींदार थे, उन दिनों में सामाजिक व्यवस्था अनुसार जैसा ही पुत्र परिपक्व हो विवाह व्यवस्था हों जाती थी , हीरा लाल, मेरे बड़े दादाजी की शादी हो गई और उनकी पत्नी, जशोमती, हमारे बड़ी दाढ़ी हमारे घर में प्रवेश कर गई। हालाँकि, बंगाली व्यवस्था के अनुसार, पत्नी आठ दिनों के बाद अपने माता-पिता के घर वापस चली जाती है, लेकिन चूंकि उन दिनों यात्रा एक मुद्दा था, इसलिए जब संभव हो, ऐसा किया जाता था।
तो कुछ समय बाद हमारी बड़ी दादी अपने माता-पिता के पास चली गईँ । उन दिनों लड़कियों का अपने माता-पिता के घर महीनो के लिए रहना स्वाभाविक था।
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पत्नी को पत्र ?, वर्ष: १९०२
हास्यास्पद कथा.
दिन और महीने बीतते गए, और फिर बड़ी दादी के पिता ने मेरे बड़े दादा के पिता, हमारे परदादा राय बहादुर डाक्टर ब्रज लाल जी, के पास एक पत्र भेजा, जिसमें शिकायत की गई थी कि उनकी बेटी, बहुत परेशान है, हर समय रोती है और बीमार रहती है। उसकी माँ और बहन के बहुत कोशिश के बाद कारण पता चला, हमें दुख हुआ कि प्रिय हीरा लाल, हमारे दामाद ने बेटी को एक भी पत्र नहीं लिखा है।
इसलिए मैं आपसे नम्रतापूर्वक अनुरोध करता हूं कि आप अपने बेटे को सलाह दें, कि मेरी बेटी को पत्र लिखें, और इस तरह उसे अपनी बीमारी से उबरने के लिए खुशी प्रदान करें। शीघ्रता शीघ्र पत्र की आशा में, प्रणाम सहित ; भवदीय आदि आदि…….
हमारे घर, उन दिनों के किसी भी बड़े घर के रूप में “अंदर महल और बहार महल” (आंतरिक और बाहरी ) यानी पुरुषों का क्षेत्र और महिला क्षेत्र था। गृह कर्ता, डॉ बृज लाल ने तुरंत मुखिया सरदार (घरेलू सहायिका के प्रमुख) को उनकी पत्नी को सूचित करने के लिए बुलाया; तथा तत्काल आंतरिक कक्ष में उनकी उपस्थिती का अनुरोध किया।
डॉ बृजलाल की पत्नी, प्रमोद कुमारी, हलदर मित्रा की बेटी, पश्चिम बंगाल के कोननगर के राजगृह की पुत्री, का हमारे सारे घर पर लोहपकड़ वाली एक बहुत मजबूत महिला, उनकी बिना ज्ञान या आज्ञा के कुछ भी नहीं हों सकता था, बल्कि किसी की साहस नहीं थी उन्हें अवैज्ञा करना ।
आंतरिक कक्ष में पति एवं पत्नी का
वार्तालाब कुछ ही मिंटो में समाप्त. व दोनों अति गंभीर एवं क्षुब्ध. गृह स्वमिनी ने अपने बेटे हीरा लाल को तत्काल उपस्थित के लिए सुचना दी.
हीरा लाल कुछ ही मिंटो में माँ के सामने उपस्थित.
उनकी माँ ने उन्हें, अपनी पत्नी के प्रति एक विवाहित पुरुष के कर्तव्य का पालन एवं अवहेना स्वरूप बढ़ेदादा को बहुत डांटा ; उनके इस कर्तव्य हीनता परिणाम के लिये पूरे घोष परिवार का प्रतिष्ठिता घोर अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ा, और उसके द्वारा स्थापित अपमान को घोष परिवार को नम्रता एवं लज्जा से स्वीकार करना पड़ा।
हीरा लाल घोष, माँ के सामने शर्मिंदा सहित चुपचाप खड़े रहें और चुपचाप अपने को कोसने लगे। फिर उनकी माँ ने उन्हें एक लंबा पत्र लिखने की आज्ञा दी, तथा अपनी पत्नी से क्षमा माँगने और उनकी पत्नी से अनुरोध करें कि वह जल्दी स्वस्थ हो जाए और वह शीघ्र ही उसे लेने आएंगे। पत्र आज रात समाप्त हो जाना चाहिए और उसे सीलबंद लिफाफे में उन्हें सौंप दिया जाना चाहिए; जिसे वह खुद भेजेंगी।
हीरा लाल तुरंत, माँ के चरण स्पर्श कर अपने कमरे को पत्र लिखें रवाना।
आदेशानुसार उन्होंने अपने माँ को पत्र सौंपा, जिसे उनके माँ ने राय बहादुर डॉ. बृजलाल घोष को सौंपा।
राय बहादुर ने पत्र को एक हरकारा (कोरियर) द्वारा,तथा एक स्वं लिखित पत्र के साथ, अपने लापरवाह बेटे की ओर से पुत्रवधू के पिता से क्षमा याचना के साथ शांत होने की प्राथना सहित पत्र रवाना कर दिया.
पत्र जोशोमती के पिता के पास पहुँचाया गया, और पत्र अंदर महल में पुत्री को भेज दिया. दादी के बहनों ने बहुत चिढ़ाकर जोशोमती को विधिवत पत्र दें दिया। दादी शरमाते हुए पत्र को लिया और अपने कमरे में भाग गई और दरवाजे बंद कर ली.
दादी के घर में सभी ने राहत की सांस ली.
लेकिन अरे, कुछ ही देर में जोशोमती के कमरे से चीख पुकार औऱ रोने का कोहराम मच मच गया.
सब लोग दौड़ते हुए उसके दरवाजे पर आए, माँ, बहन सब दरवाजा खोलने की याचना करने लगे; पर नहीं, वह दरवाज़ा नहीं खोलेंगी ; दादी की रोने की मात्रा और बहुत जोर से वृद्धि हुई।
दादी के पिता को घर में स्तिथी सूचित किया गया और वह गुस्से में, हरकारे को खूब, जो मन में आया सुना दिया. बिचारा हरकरा, चुपचाप थरराता हुआ सुनता रहा, उसे तो पता ही नहीं, वह कियु, डांट खा रहा हैं.
खैर गृह कर्ता बेटी के कमरे के पास पहुँचे और उन्हें एक बार में दरवाज़ा खोलने की आज्ञा दी। उन दिनों घर के कर्ता के शब्दों में अंतिमता का प्रतीक होता था। किन्तु, परन्तु, लेकिन का कोई स्थान नहीं था. दादी ने रोते रोते दरवाज़ा खोला, और यह क्या!
सारी गृह भीड़ ने देखा…..!
मेरे बड़े दादाजी के लंबे पत्र के पन्नों से पूरा कमरा बिखरा हुआ था। दादी की मां उसे गोद में उठाकर शांत करने लगी। वे सोचने की कोशिश कर रहीं थीं कि मेरे दादाजी ने मेरी बेटी को उदास कर रोने के लिए क्या लिखा होगा?
और दादी के पिता ने बेटी के कमरे में प्रवेश कर शीघ्रता से सारे बिखरे हुऐ पन्ने बटोर लिए। फिर अचानक वह पत्र को देखने के लिए रुके, फिर एक पल के लिए वह हतप्रभ रह गये , फिर वह जोर-जोर से हंस पड़े. उसकी पत्नी ने आगे आकर पूछा कि आप किस बात पर हंस रहे हैँ , जबकि हमारी बेटी को इतना दर्द हो रहा है; कर्ता ने अपने स्त्री को अपने जमाई के पत्रों के पन्नों को दिखाया! औऱ गृहणी थोड़ी देर पत्र पन्नो को देख के, वह भी अपने पति के साथ हसते हुऐ, अपनी बेटी को दुलारा औऱ कहा बेटी शांत हों जाओ, तुम्हारे पिता शीघ्र व्यवस्था कर देंगे!
क्यों? यह क्या हों रहा है, बाक़ी परिवार ने पूंछा…… ?
लंबा पत्र उर्दू में लिखा गया था।
मेरे दादाजी बंगाला लिखना नहीं आता था……..
तत्काल एक मोलवी तथा अनुवादक के साथ विधिवत व्यवस्थित किया गया, पर्दा के एक तरफ मोलवी और अनुवादक और दूसरी तरफ दादी औऱ उनके साथ उन की बहने, और जैसे जैसे उर्दू के शेर, शायरी एवं नज़न प्रेम की भाषा का अनुवाद किया जा रहा था, जल्द ही दादी के बहने एक, एक कर खिसक गये……
शब्द प्रेम का औऱ दादी की अनुपस्थिति में उदास दादा जी की स्तिथी एवं दादी जी के आने की चाहत में दादाजी की संगीत के लहरों जैसी .. नज़्म एवं शायरी… शरमाते शर्मीले चेहरे से सुनकर दादी जी के चहरे की लालिमा, प्रातः के आकाश में जैसे लालिमा से लिप्त, दोनों हाथो से चहरे को ढकती हुई दादी मंद मंद मुस्कुराहट में मिलन के सपनो में खो गई…..