पत्थर दिखता है . (ग़ज़ल)
सिमटा सिमटा एक समन्दर दिखता है
बाहर से भी ख़ुद के अन्दर दिखता है
साथ सभी को जब लेकर वो चलता है
टूटा -टूटा मुझको अक्सर दिखता है
टकराता है जब वो अक्सर शीशे से
फूल लिए हाथों में पत्थर दिखता है
सूखे पत्ते हरे नही होंगे ये तय है
साख़ पे लटका फिर क्यों खंज़र दिखता है
नज़र न आये भले किसी नज़र में फिर भी
हमें हमारी वहीं मुकद्दर दिखता है
नही अगर है मेरे लिए कुछ उसमें तो फिर
देखता छुप क्यों मुझको मंज़र दिखता है
‘महज़’ यहीं एहसास हुआ है रातों में
दिनभर वो ख़्वाबों के अन्दर दिखता है