पता नहीं किस डरसे
बदरा बरसे
सिसके सरसों
हुई दोहरी
सिर रखने काँधे को तरसे ।
कृषक बिचारा
हिम्मत हारा
दौड़ा खेतों
लुटती दुनिया दरसे ।
पीली सरसों
आग समझकर
उसे बुझाने
बादल आए घर से ।
मौसम पल पल
पाल रहा भ्रम
रूप बदलता
पता नहीं किस डर से ।
बदरा बरसे
सिसके सरसों
हुई दोहरी
सिर रखने काँधे को तरसे ।
कृषक बिचारा
हिम्मत हारा
दौड़ा खेतों
लुटती दुनिया दरसे ।
पीली सरसों
आग समझकर
उसे बुझाने
बादल आए घर से ।
मौसम पल पल
पाल रहा भ्रम
रूप बदलता
पता नहीं किस डर से ।