पटकथा फिर से महाभारत की लिक्खी जा रही है।
हर जुबां पर दंभ की चिड़िया तराना गा रही है।
पटकथा फिर से महाभारत की लिक्खी जा रही है।
है विषय अफसोस का यह, फिर धरा पर विश्व गुरु की,
मूर्खता अज्ञानता का घोर तम छाने लगा है।
राम के अस्तित्व पर भी, प्रश्न वाचक चिह्न है और,
कृष्ण को छलिया दुराचारी कहा जाने लगा है।।
पापियों के अंत की बारी दुबारा आ रही है।
पटकथा फिर से महाभारत की लिक्खी जा रही है।
पाप बढ़ता जा रहा है अनवरत दिन रात लेकिन,
धर्म रथ के अश्व बूढ़े हो गये पहिए रुके हैं।
द्रोपदी को नग्न करता है दुशासन और देखो,
भीष्म द्रोणाचार्य के भी शीश अब फिर से झुके हैं।।
मित्रता ये कर्ण दुर्योधन की रँग दिखला रही है।
पटकथा फिर से महाभारत की लिक्खी जा रही है।।
न्याय के मंदिर दिखावा कर रहे हैं न्याय का बस,
सच ये है मनमानी सत्ता की वहाँ भी चल रही है।
योग्यता कानून के पचड़ों में फँसकर घुट रही बस,
और अपमानित हो प्रतिभा ठोकरों में पल रही है।
फिर गलत हाथों में जाकर शक्ति अब गुर्रा रही है।
पटकथा फिर से महाभारत की लिक्खी जा रही है।।
प्रदीप कुमार “दीप”
सुजातपुर सम्भल (उ०प्र०)