पग-पग पर हैं वर्जनाएँ….
पग-पग पर हैं वर्जनाएँ।
सूखे घन- सी गर्जनाएँ।
गति नियति की अद्भुत,
अद्भुत उसकी सर्जनाएँ।
पल भर के ही भ्रूभंग पर,
टूटतीं लौह-अर्गलाएँ।
साथिन हैं जीवन भर की,
जीवन की ये विडंबनाएँ।
जो होना है होकर रहता,
काम न आतीं अर्चनाएँ।
राहें बदलती जीवन की,
टूटती – जुड़तीं श्रंखलाएँ।
सच कैसे भी हो न पाएँ,
मन की कोरी कल्पनाएँ।
अनगिन चोटें दर्द अथाह,
मुँह बिसूरती वंचनाएँ।
स्वत्व कैसा स्वजनों का,
वक्त पर जो काम न आएँ।
कोई तो अपना हो यहाँ,
जख़्म किसे कैसे दिखाएँ ?
पी ले ‘सीमा’अश्क सभी,
आँखे नाहक छलछलाएँ।
© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
“चाहत चकोर की” से