पगडंडी ने पग छीले हैं
हरियाली ही हरियाली है मेरे पथ के दोनों ओर
व्यथा यही है पगडंडी ने पग छीले हैं।
प्रथम चरण जब धरा दूब पर
एक सुखद स्पर्श हुआ
तब ना सोचा दुर्वा के अंतर में
कितना दर्द हुआ
आज आवरण रहित धरा के
अंतर में लाखों कीले हैं।
व्यथा यही है पगडंडी ने पग छीले हैं।
सदा रहूं मैं हरित
कामना मिथ्या की थी तरुवर ने
उसे डंसा आकर एक दिन
मौसम के नीले विषधर ने
हरी डाल पर लाल फूल
पत्ते पीले हैं।
व्यथा यही है पगडंडी ने पग छीले हैं।
मन का दुख सहते सहते
पथराई आंखें छलक गर्इं
कई रातों की जमी हुई
कुछ ओस की बूंदें ढलक गर्इं
आंसू कहां सुखाऊं सभी
आंचल गीले हैं।
व्यथा यही है पगडंडी ने पग छीले हैं।
हरियाली ही हरियाली है मेरे पथ के दोनों ओर
व्यथा यही है पगडंडी ने पग छीले हैं।