पक्की सहेलियाँ
रिया गुज़र गयी? कब कैसे? क्या हुआ?” मैंने लगभग चीखते हुए अंकल जी से पूछा।
” आज एक साल हो गया, करुणा।उसके सास ससुर के विवाह की पचासवीं वर्षगाँठ थी।घर मे मेहमान जमा थे।वह भाग भाग कर सबकी खातिरदारी में लगी थी।एक पाँव नीचे और दूसरा फर्स्ट फ्लोर पर।सुबह से फिरकी की तरह घूम रही थी।पता नहीं कैसे सीढ़ियों में पाँव फिसला ।सिर ज़मीन से लगा और मिनटों में सब खत्म ” ।बेटी को याद कर अंकल जी सुबकने लगे।
“अच्छा बेटा, चलता हूँ।उसकी बरसी है, कुछ सामान लेना था इसीलिए बाजार आया था।” अंकल जी आँखे पोंछते हुए तेज़ी से आगे बढ़ गए।
मैं बुत बनी खड़ी रही और दूर तक अंकल जी को जाते देखती रही।कितने बूढ़े लग रहे हैं ! कितना मुश्किल होता होगा पिता के सामने बेटी का चला जाना !
रिया स्कूल से मेरी बेस्ट फ्रेंड थी।उसका घर भी मेरे ही सेक्टर में था।मुश्किल से दस बारह मिनट दूर।मुझे खुद पर ग्लानि हो आयी।एक साल पहले मेरी सबसे पक्की सहेली की मृत्यु हो गयी और मुझे पता भी नहीं।उसके पति और बच्चों के पास संवेदना व्यक्त करने तक नहीं गयी मैं।
कैसे जाती !कौन बताता मुझे? मैंने अपनी किसी सहेली से सम्बन्ध ही नहीं निभाए।शादी के बाद अपने आपको घर गृहस्थी में बुरी तरह उलझा लिया।मुझे हमेशा लगता रहा कि मेरे बिना ये परिवार कुछ नहीं कर पायेगा।मेरी फ्रेंड्स जब भी मुझे फ़ोन करतीं ,मैं अपने आपको हमेशा व्यस्त पाती।कभी बाबूजी की दवाई में, कभी मांजी की मालिश तो कभी बच्चों के स्कूल टेस्ट्स में।बड़े बेमन से उनसे बातें करती और फिर ज़्यादा काम की दुहाई देकर फ़ोन रख देती।कभी कभी तो उनका फोन उठाती तक नहीं थी कि गप्पे मारने के लिए समय कहाँ से लाऊंगी।वे पिक्चर जाने का प्रोग्राम बनाती तो उस दिन मुझे मांजी को उनकी बहन से मिलवाने ले जाना होता।और मैं टाल जाती ।वे गेट टूगेदर रखती उस दिन बाउजी की डॉक्टर की अपॉइंटमेंट आ जाती।
वे भी परिवार में रहती थी लेकिन अपने मनोरंजन का भी पूरा ध्यान रखतीं।पार्लर भी जाती और जिम भी।
मैंने अपने परिवार के लोगों को खुश रखना अपना परम धर्म समझा।एक आदर्श बहू,आदर्श पत्नी और आदर्श माँ बनने के चक्कर में एक अच्छी दोस्त भी नहीं बन पाई।सच कहूं तो हिम्मत ही नहीं जुटा पाई घर में कहने की कि मुझे अपनी सहेलियों के साथ घूमने जाना है, फ़िल्म देखनी है या पार्लर जाना है।मेरी सहेलियां अब भी बहुत स्मार्ट दिखती थीं और मैं जैसे उनसे 10 साल बड़ी।धीरे धीरे उन्होंने मुझे फ़ोन करना भी बंद कर दिया और सभी सहेलियों के साथ संपर्क टूट गया।ऐसा नहीं कि मुझे उनकी याद नहीं आती थी।बहुत आती थी।बस यही मन में सोचा कि जिम्मेदारियों से निवृत हो जाऊं, फिर खूब मज़े करूंगी अपनी सहेलियों से साथ ।रिया और मैं कॉलेज के दिनों की तरह खूब फिल्में देखेंगे, पुराने गाने गाया करेंगे,इक्कठे शॉपिंग जाया करेंगे। लेकिन ये क्या! रिया चली भी गयी।हमेशा के लिए।अब कभी नहीं मिल पाऊंगी मैं, अपनी बेस्ट फ्रेंड से ! ऐसे ही मैं भी चली जाऊंगी एक दिन।वो कितने फ़ोन करती थी मुझे।और मैं हर बार व्यस्तता की दुहाई दे कर जल्दी से फ़ोन रख देती।धीरे धीरे उसने भी फ़ोन करने बन्द कर दिए।और मैं ज़िम्मेदारियों में और उलझ गयी।सास ससुर और बूढ़े हो गए।बच्चे और बड़े हो गए।ज़्यादा काम और तनाव की वजह से मेरी तबीयत खराब रहने लगी।कई बीमारियां लग गईं.. बी पी, शुगर, थाइरोइड!”
पों..पों..पों… कोई ज़ोर ज़ोर से हॉर्न बजा रहा था।मैं सड़क के बीचों-बीच खड़ी थी।
“सॉरी”, कह कर मैं तेज़ी से घर की तरफ बढ़ गयी।
घर पहुंचते ही व्हाट्सएप खोल कर देखा तो ‘पक्की सहेलियाँ’ ग्रुप पर अंतिम मैसेज था”यू लेफ्ट” ।
जल्दी से सिमरन को मैसेज किया,” आई एम बैक सिमरन।ऐड मि टू द ग्रुप पक्की सहेलियाँ”।
पाँच मिनट बाद सिमरन का फ़ोन आ गया।ढेरों बातें की हमनें।गिला ..शिकवा… नया..पुराना…सब दोहराया ! रिया को याद कर दोनों खूब रोई भी।अम्मा जी मेरे बदलते भावों को देख कर परेशान थीं।
फ़ोन रखते ही मैंने मांजी से कहा”खाना लगा दूँ अम्माजी?
“अभी ? ” अम्मा जी बोली।”आधे घंटे बाद दे देना।ज़रा सीरियल देख लूँ।”
“दो तो बज गए मांजी ! खा लीजिए खाना।मुझे ज़रा ज़रूरी काम है।अपनी सहेली रिया के घर जाना है! मुझे कुछ देर हो जाएगी। आज बाबू जी को दवा आप ही दे देना।भूलना नहीं। और हाँ मांजी, सोच रही हूँ संडे को माँ से मिल आऊं।पूरा साल हो गया।माँ कब से बुला रही हैं।” मैंने पर्स कन्धे पर टाँगते हुए कहा।
” लेकिन सोमवार को तो तूने मुझे डॉक्टर के पास लेकर जाना है।” माँ की आवाज़ में नाराज़गी थी।
” रूटीन चेकअप हैं माँजी।आप फिक्र न करें।मंगलवार लौट आऊंगी।फिर ले चलूंगी आपको डॉक्टर के पास।”
माँजी अजीब नज़रों से मुझे देख रही थीं।
और मैं माँजी के चेहरे पर छपे प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ रिया के घर के लिए निकल गयी।
**** धीरजा शर्मा***